१३. वक्रोक्ति –अलंकारः । प्रस्तोता - डॉ श्रेयांश द्विवेदी Dr Shreyansh Dwivedi

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लक्षणम्- यदुक्तमन्यथा वाक्यमन्यथान्येन योज्यते।
श्लेषेण काक्वा सा ज्ञेया सा वक्रोक्तिस्तथा द्विधा ।। काप्र. 78 ।।
अर्थ- जो वक्ता द्वारा अन्य प्रकार से अन्य अर्थ में कहा हुआ वाक्य दूसरे बोद्धा या श्रोता के द्वारा श्लेष अर्थात्शब्द के दो अर्थवाला होने से अथवा काकु अर्थात् बोलने के प्रकार से, अन्य प्रकार से अर्थात् वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ में लगा लिया जाता है, वह वक्रोक्ति नामक अलंकार होता है।
उदाहरणम्- कथमेतत् वनं गच्छसि एकाकिनी त्वम्।
नाहम् एकाकिनी गच्छामि, मदनो मम सहचरः॥
यहाँ नायिका का चतुर उत्तर वक्रोक्ति है। एकाकी शब्द का दोहरा अर्थ है।
उदाहरणम्- किं रोदिषि त्वं मुग्धे रुदती बाधाकरी मम।
नाहं रोदिमि केवलं तु नयने स्वभावचञ्चले मम॥
यहाँ रोने के आरोप का चतुराई से खंडन वक्रोक्ति है।


उदाहरणम्- अंगुल्यः कः कपाटं प्रहरति? कुटिले! माधवः, किं वसन्तो , नो चक्री, किं कुलालो? न हि धरणिधरः किं द्विजिह्वः फणीन्द्रः?।  नाहं घोराहिमर्दी, त्वमसि खगपतिर्नो हरिः किं कपीन्द्रः ?, इत्येवं सत्यभामाप्रतिवचनजितः पातु वश्चक्रपाणिः ।। जब कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के कमरे का दरवाजा खटखटाया तो वह पूछती है- कौन है? कृष्ण:- मैं माधव हूँ। वह क्या यह वसंत ऋतु है (माधव का अर्थ वसंत भी होता है)। कृष्ण:- नहीं, मैं चक्री हूँ । वह कुम्हार है क्या? कृष्ण:- नहीं, मैं धरणीधर हूँ। वह क्या यह महान साँप है (जो पृथ्वी को धारण करता है)? कृष्ण:- नहीं, मैंने ही जहरीले साँप (कालिया) को मारा था। वह क्या आप गरुड़ हैं? कृष्ण:- नहीं, मैं हरि हूँ । वह क्या तुम बन्दर हो? इस प्रकार सत्यभामा के वचनों से वशीभूत भगवान कृष्ण हमारी रक्षा करें।


डॉ श्रेयांश द्विवेदी
Dr Shreyansh Dwivedi

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