पंचतंत्र की रचना करने वाले विष्णु शर्मा एक ऐसे विद्वान ब्राह्मण थे जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने भारतीय नीतिशास्त्र में अपनी गहरी पकड़ बना ली थी। कई लोग विष्णु शर्मा के अस्तित्व पर सन्देह करते हैं, लेकिन इसके पीछे कोई ठोस कारण नहीं है। दरअसल, पंचतंत्र के सभी संस्करणों में उनके नाम को इस ग्रंथ के लेखक के रूप में लिखा गया है, इसलिए इस बात में किसी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए।
कहा जाता है कि जब उन्होंने पंचतंत्र की रचना की थी, तब वे लगभग अस्सी वर्ष के थे। उनकी उम्र का यह समय अनुभव और ज्ञान से भरपूर था, और उनका मन सभी प्रकार के भौतिक भोगों और इच्छाओं से मुक्त हो चुका था। विष्णु शर्मा ने स्वयं कहा है, "मैंने इस शास्त्र की रचना अत्यन्त बुद्धिपूर्वक की है जिससे औरों का हित हो।" इसका अर्थ यह है कि वे लोकहित को ध्यान में रखकर कार्य करते थे, और अपनी विद्या को दूसरों के लाभ के लिए समर्पित करना उनका मुख्य उद्देश्य था।
पंचतंत्र की रचना के पीछे विष्णु शर्मा का उद्देश्य यही था कि वे अपने ज्ञान को लोकहित के लिए प्रस्तुत कर सकें। उन्होंने मनु, बृहस्पति, शुक्र, पराशर, व्यास और चाणक्य जैसे महान आचार्यों के राजशास्त्र और अर्थशास्त्रों को अपने अनुभव से मथकर पंचतंत्र रूपी नवनीत तैयार किया। पंचतंत्र की कहानियाँ केवल मनोरंजन के लिए नहीं हैं, बल्कि वे हमें जीवन की सच्चाईयों से अवगत कराती हैं और नीतियों की शिक्षा देती हैं।
पिछले विचार के सत्र में विष्णु शर्मा का दृष्टिकोण हमें बहुत सीख दिया है -
पंचतंत्र के माध्यम से विष्णु शर्मा ने यह दर्शाया कि किस प्रकार नीति और चतुराई से जीवन की कठिनाइयों का सामना किया जा सकता है। दमनक ने चालाकी से अपने स्वामी को अपने वश में कर लिया और अपने फायदे के लिए संजीवक और पिंगलक के बीच फूट डाल दी। लेकिन यह भी स्पष्ट हुआ कि झूठ और छल से केवल अस्थायी सफलता ही पाई जा सकती है।
विष्णु शर्मा का उद्देश्य इस प्रकार की कहानियों के माध्यम से नीतिगत शिक्षा देना था, ताकि लोग जीवन के व्यवहारिक पक्षों को समझ सकें और अपने लिए उचित मार्ग चुन सकें। पंचतंत्र की कहानियाँ केवल शेर, बैल, और सियारों की कहानियाँ नहीं हैं; वे हमारी सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं को उजागर करती हैं और हमें यह सिखाती हैं कि कैसे अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग करके कठिन परिस्थितियों से बाहर निकला जा सकता है।
पंचतंत्र की कहानियाँ हमें सिखाती हैं कि जीवन में चालाकी और चतुराई की भी आवश्यकता होती है, लेकिन साथ ही नीतिगत मूल्यों और सच्चाई का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। पिंगलक और संजीवक की मित्रता का टूटना हमें इस बात की सीख देता है कि हमें अपने विश्वास को बिना सोचे-समझे किसी और के हाथों में नहीं सौंपना चाहिए। साथ ही, यह भी कि सच्ची मित्रता और विश्वास को बनाए रखना कठिन है, लेकिन अगर यह टूट जाए तो उसका नुकसान बहुत बड़ा होता है।
आज हम दंतिल और गोरंभ की कहानी की शुरुआत करते हैं-
नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आप सभी का पंचतंत्र की कहानियों की इस दिलचस्प श्रृंखला में। आज हम सुनने जा रहे हैं दंतिल और गोरंभ की कहानी। यह कहानी हमें बताती है कि कैसे हमारे द्वारा किया गया अपमान हमारे लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है। तो चलिए, शुरू करते हैं।
इस कहानी की शुरुआत होती है वर्द्धमान नाम के नगर से। इस नगर में दंतिल नाम का एक सेठ रहता था, जो बहुत समझदार था और उसने अपनी चतुराई से नगरवासियों और राजा, दोनों को खुश रखा। वह नगर का अगुवा था और सभी लोग उसकी इज्जत करते थे। लेकिन एक दिन एक घटना ने उसकी खुशहाली को बदल दिया।
दंतिल की बेटी का विवाह हुआ और उसने नगर के सभी महत्वपूर्ण लोगों और राजा के लोगों को अपने घर बुलाकर आदर-सत्कार किया। राजा के महल में झाडू देने वाला गोरंभ नामक सेवक भी वहाँ आया था। जब दंतिल ने उसे अनुचित स्थान पर बैठा देखा, तो गुस्से में आकर उसने उसे बाहर निकाल दिया। इस घटना ने गोरंभ को बहुत आहत किया और उसने दंतिल से बदला लेने की ठान ली।
गोरंभ ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक योजना बनाई। एक सुबह जब राजा अर्ध-निद्रा में थे, गोरंभ सफाई कर रहा था। उसी समय उसने बोल दिया, "अरे! दंतिल ने महारानी को आलिंगन किया।" राजा यह सुनते ही चौंक गया और उसने गोरंभ से पूछा, "यह सच है?" गोरंभ ने कहा, "मुझे नहीं पता, शायद मैं नींद में कुछ बोल गया हूँ।" लेकिन राजा के मन में संदेह पैदा हो गया और उसने दंतिल से दूरी बना ली। उसके बाद राजा ने दंतिल को महल से निकाल दिया और उससे पूरी तरह मुँह मोड़ लिया।
दंतिल, जो राजा का प्रिय और नगर का सम्मानित व्यक्ति था, अचानक ही सब कुछ खो बैठा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हुआ। एक दिन जब वह राजा के महल के द्वार पर खड़ा था, गोरंभ ने उसका मजाक उड़ाया और कहा, "अब दंतिल को भी वही सजा मिली है, जो मुझे मिली थी।" दंतिल को समझ में आ गया कि यह सब गोरंभ की चाल थी।
दंतिल ने सोच-समझकर गोरंभ को शाम को अपने घर बुलाया और उसका बहुत आदर-सत्कार किया। उसने उससे माफी मांगी और कहा, "भाई, मैंने गुस्से में आकर तुम्हारा अपमान किया था। मुझे माफ कर दो।" गोरंभ, जो अब खुश था, ने उसे माफ कर दिया और वादा किया कि वह राजा से उसके लिए बात करेगा।
गोरंभ राजा के पास गया और अर्ध-निद्रा में सफाई करते हुए उसने राजा से कहा, "अरे हमारे राजा कितने मूर्ख हैं, पाखाना जाते समय ककड़ी खा रहे हैं।" यह सुनकर राजा चौंक गया और उसने गोरंभ से पूछा, "क्या तुमने सच में मुझे ऐसा करते देखा है?" गोरंभ ने जवाब दिया, "महाराज, शायद मैं नींद में कुछ बकवास कर रहा हूँ। मुझे माफ करें।"
राजा ने सोचा, "
कहानी से सीख:
इस कहानी से हमें यह सीखने को मिलता है कि हमें किसी का अपमान नहीं करना चाहिए। हमें सभी को बराबर सम्मान देना चाहिए, चाहे वह छोटा हो या बड़ा। दंतिल ने गोरंभ का अपमान किया और उसका परिणाम उसे भुगतना पड़ा। हमें अपने व्यवहार में हमेशा विनम्रता और आदर का ध्यान रखना चाहिए।
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