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बाबा संस्मरण 💛 पूर्व-जन्म की झाकियाँ 💛

जब बाबा जमालपुर में रहते थे, तो दशरथ दादा के जरिये कभी- कभार आगंतुकों को उनके पूर्व- जन्मों का अंदाज करवाते थे। पर यह होता था अधिकांशतः गृही साधकों के लिए। पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं के लिए ऐसा शायद ही कभी होता हो। जीवनदानी कार्यकर्ताओं के लिए तो यह लाजिमी था कि वे संन्यासी बनने के पूर्व काल से कोई सम्पर्क न रखें, स्मृति न रखें, तो जन्म-पूर्व स्मृतियों का अवसर उन्हें देने का सवाल ही नहीं उठता था। पर अपवाद
रूप में कभी कभी उनके पूर्वजन्म की झाँकियाँ भी बाबा दिखाते थे।

यह किस्सा है जम्मू के दो पूर्णकालिक कर्मियों का। वे दीक्षा- पूर्व बहुत गहरे दोस्त थे। दोनों ने साथ साथ ही
दीक्षा ली। दोनों ने संग-संग जीवनदानी कर्मी बनने की ठानी। संन्यास-पूर्व ट्रेनिंग तक साथ- साथ ही रहे। ट्रेनिंग के बाद जब कार्यभार के लिए पदस्थापन का समय आया तो दोनों ने हाथ जोड़कर बाबा से प्रार्थना की कि उन्हें एक ही जगह संग-संग कार्य-दायित्व सौंपा जाय। बाबा की डायरी में तो इस प्रकार के मनोवांछित समायोजन की कोई गुंजाइश हो नहीं सकती थी। जाहिर है, उन्हें अलग-अलग जगहों में भेजा गया। जमालपुर जब जब रिर्पोटिंग के लिए
लौटते तो अधिकांश वक्त संग-संग गुजारते। उनका याराना आचार्य जगत में अक्सर एक चर्चा का विषय होता।

एक बार एक धर्मसभा में वे दोनों बैठे हुए थे। बाबा ने दशरथ दादा के माथे के पीछे हाथ रखकर कहा- “बताओ तो इन दोनों के पूर्व-जन्म की कथा।” दशरथ दादा मानस जगत की अंधेरी गलियों से होते हुए एक प्रकाशमय जगत में पहुँचे और देखा कि वर्तमान बांग्लादेश में स्थित पद्मा नदी के किनारे एक श्मशान में दो चिताएँ संग-संग जल रही हैं। “किनकी चिताएँ हैं?" बाबा ने पूछा।

“दो सुन्दर नवयुवकों की चिताएँ हैं बाबा!” बाबाकृपा से त्रिकालदर्शी बने दशरथ जी ने कहा। "कौन है ये
दोनों, पता करो तो?" बाबा का आदेश था। "बाबा ये दोनों सगे भाई हैं और इनकी साथ साथ मौत हो गयी।” “कैसे मौत हुई?” बाबा ने तहकीकात करने के लिए कहा। "बाबा! ये दोनों नदी स्नान के लिए गये थे। एक कुछ गहरे में चला गया और डूबने लगा। दूसरा भी आगा-पीछा देखे बगैर उसे बचाने के लिए गहराई में उतर गया। जल का बहाव इतना तीव्र था कि न वह उसे बचा पाया और न अपने आपको। इस प्रकार दोनों एक संग एक स्थान में जल समाधिस्थ हो गये। सारा समाज उनके इस आकस्मिक निधन से दुखित था।”

बाबा ने बताया कि ये दोनों अपने-अपने इलाके के संपन्न परिवार के थे तथा अपने पूर्व- जन्मों के अशमित संस्कारों की वजह से ही ये दोनों इस जन्म में भी एक ही जगह मिल गये और अंतरंग मित्र बन गये। संन्यासी बन जाने पर भी पारस्परिक अभिन्न प्रेम के उतने ही कायल हैं, जितने कि पूर्व- जन्म की अंतिम साँस तक थे। मुक्ति के पूर्व अच्छे या बुरे, दोनों तरह के संस्कारों का पूर्णतः क्षय होना अत्यन्त अनिवार्य है।

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प्रकाशक- यह कथा जम्मू के दो मित्र किरण व किशन की है। कुछ समय तक पूर्णकालिक कर्मी बने रहने के बाद बाबा की पूर्वानुमति से कर्मी-दायित्व से मुक्त हो गये। विभाजन-पूर्व किरण पश्चिमी भारत में था। विभाजन के बाद, पूर्व जन्म के संस्कार उसे अपने जन्म-पूर्व भाई किशन से मिलाने जम्मू ले आये और वह वहीं बस गया।

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'प्राचीन भारत में नियम था कि कोई अगर किसी को गाली दिया, निन्दा किया, अपभाषा का व्यवहार किया, तो जिनके प्रति किया गया, वे अपभाषा का व्यवहार नहीं करेंगे। वे उस वक्त कहते थे- 'शिव, शिव, शिव’ माने, ‘तुम्हारा कल्याण हो, कल्याण हो, कल्याण हो। तुम्हारे मुँह से अपभाषा नहीं निकले।'

श्री श्री आनन्दमूर्ति जी

पुस्तक का नाम --- बाबा पुराण
लेखक -- श्याम हमराही

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