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Скачать или смотреть कौन थे काकभुशुण्डि जी

  • Reet Knowledge TV
  • 2023-02-13
  • 449
कौन थे काकभुशुण्डि जी
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Описание к видео कौन थे काकभुशुण्डि जी

काकभुशुण्डि [श्रीरामचरितमानस]। संत तुलसीदास जी
ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है कि
काकभुशुण्डि (काकभुशंडी) परमज्ञानी रामभक्त हैं।
रावण के पुत्र मेघनाथ ने राम से युद्ध करते हुये राम को
नागपाश से बाँध दिया था। देवर्षि नारद के कहने पर
गरूड़, जो कि नागभक्षी थे, ने नागपाश के समस्त
नागों को प्रताड़ित कर राम को नागपाश के बंधन से
छुड़ाया। राम के इस तरह नागपाश में बँध जाने पर राम
के परमब्रह्म होने पर गरुड़ को सन्देह हो गया। गरुड़ का
सन्देह दूर करने के लिये देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्मा जी के
पास भेजा। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुम्हारा सन्देह
भगवान शंकर दूर कर सकते हैं। भगवान शंकर ने भी
गरुड़ को उनका सन्देह मिटाने के लिये काकभुशुण्डि जी
के पास भेज दिया। अन्त में काकभुशुण्डि जी ने राम के
चरित्र की पवित्र कथा सुना कर गरुड़ के सन्देह को दूर
किया। गरुड़ के सन्देह समाप्त हो जाने के पश्चात्
काकभुशुण्डि जी गरुड़ को स्वयं की कथा सुनाया जो
इस प्रकार हैः
पूर्व के एक कल्प में कलियुग का समय चल रहा था।
उसी समय काकभुशुण्डि जी का प्रथम जन्म अयोध्या
पुरी में एक शूद्र के घर में हुआ। उस जन्म में वे भगवान
शिव के भक्त थे किन्तु अभिमानपूर्वक अन्य देवताओं
की निन्दा करते थे। एक बार अयोध्या में अकाल पड़
जाने पर वे उज्जैन चले गये। वहाँ वे एक दयालु
ब्राह्मण की सेवा करते हुये उन्हीं के साथ रहने लगे।
वे ब्राह्मण भगवान शंकर के बहुत बड़े भक्त थे किन्तु
भगवान विष्णु की निन्दा कभी नहीं करते थे। उन्होंने
उस शूद्र को शिव जी का मन्त्र दिया। मन्त्र पाकर उसका
अभिमान और भी बढ़ गया। वह अन्य द्विजों से ईर्ष्या
और भगवान विष्णु से द्रोह करने लगा। उसके इस
व्यवहार से उनके गुरु (वे ब्राह्मण) अत्यन्त दुःखी होकर
उसे श्री राम की भक्ति का उपदेश दिया करते थे।
एक बार उस शूद्र ने भगवान शंकर के मन्दिर में अपने
गुरु, अर्थात् जिस ब्राह्मण के साथ वह रहता था, का
अपमान कर दिया। इस पर भगवान शंकर ने
आकाशवाणी करके उसे शाप दे दिया कि रे पापी! तूने
गुरु का निरादर किया है इसलिए तू सर्प की अधम
योनि में चला जा और सर्प योनि के बाद तुझे 1000
बार अनेक योनि में जन्म लेना पड़े। गुरु बड़े दयालु थे
इसलिये उन्होंने शिव जी की स्तुति करके अपने शिष्य
के लिये क्षमा प्रार्थना की। गुरु के द्वारा क्षमा याचना
करने पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके कहा,
"हे ब्राह्मण! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जायेगा। इस शूद्र
को 1000 बार जन्म अवश्य ही लेना पड़ेगा किन्तु
जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है वह
इसे नहीं होगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान
नहीं मिटेगा। इसे अपने प्रत्येक जन्म का स्मरण बना
रहेगा जगत् में इसे कुछ भी दुर्लभ न होगा और
इसकी सर्वत्र अबाध गति होगी मेरी कृपा से इसे
भगवान श्री राम के चरणों के प्रति भक्ति भी
प्राप्त होगी।
इसके पश्चात् उस शूद्र ने विन्ध्याचल में जाकर
सर्प योनि प्राप्त किया। कुछ काल बीतने पर
उसने उस शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग
दिया वह जो भी शरीर धारण करता था उसे
बिना कष्ट के सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे
मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र
पहन लेता है। प्रत्येक जन्म की याद उसे बनी
रहती थी। श्री रामचन्द्र जी के प्रति भक्ति भी
उसमें उत्पन्न हो गई। अन्तिम शरीर उसने
ब्राह्मण का पाया। ब्राह्मण हो जाने पर ज्ञानप्राप्ति
के लिये वह लोमश ऋषि के पास गया। जब
लोमश ऋषि उसे ज्ञान देते थे तो वह उनसे अनेक
प्रकार के तर्क-कुतर्क करता था। उसके इस व्यवहार
से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उसे शाप दे दिया
कि जा तू चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। वह
तत्काल कौआ बनकर उड़ गया। शाप देने के पश्चात्
लोमश ऋषि को अपने इस शाप पर पश्चाताप हुआ
और उन्होंने उस कौए को वापस बुला कर राममन्त्र
दिया तथा इच्छा मृत्यु का वरदान भी दिया। कौए
का शरीर पाने के बाद ही राममन्त्र मिलने के कारण
उस शरीर से उन्हें प्रेम हो गया और वे कौए के
रूप में ही रहने लगे तथा काकभुशुण्डि के नाम से
विख्यात हुए।up

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