आत्मा की रुचि हो और सम्यग्दर्शन ना हो सके तो अगले भव में होगा क्या?

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प्रश्न: आज की चर्चा का पहला प्रश्न है - आत्मा की रुचि हो और सम्यग्दर्शन ना हो सके तो अगले भव में होगा क्या?
पूज्य बाबूजी: पहली बात तो यह है कि आत्मा की रुचि को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसलिए आत्मा की रुचि हो और सम्यग्दर्शन ना हो - ऐसा संभव नहीं है। आत्मा की रुचि होने पर संपूर्ण विश्व की, संपूर्ण विश्व के द्रव्यों की उनके गुणों की उनकी पर्याय की और अपनी संपूर्ण पर्याय की रुचि टूट जाती है और एक मात्र हमारा अनादि-अनंत अविनश्वर जो चैतन्य तत्त्व है, उस पर रुचि स्थापित हो जाती है। रुचि माने उसका स्नेह, उसकी प्रीति अर्थात् उसका अहम्। वास्तविक शब्द है श्रद्धा के लिए सम्यग्दर्शन के लिए अहम् आत्मा का अहम् स्थापित हो जाता है, लेकिन रुचि अगर यहाँ पर केवल विकल्पात्मक हो कि मुझे विषय भी अच्छे नहीं लगते, जगत भी ठीक नहीं लगता, जगत को भी मैं पराया मानता हूँ, मुझे राग-द्वेष में भी रुचि नहीं है, राग-द्वेष भी अच्छे नहीं लगते, जगत के पदार्थों से मुझे राग-द्वेष हो ये कल्पना भी मुझे भारी लगती है। इसलिए ऐसी जो विकल्पात्मक रुचि हो तो वह विकल्पात्मक रुचि भी वास्तविक हो। आत्मा प्यारा लगता हो प्रिय लगता हो, जगत में सर्वश्रेष्ठ लगता हो। क्योंकि अपनी सत्ता है न! अपनी चीज है न!
जब पराई सत्ता में पर वस्तु में हमें कुछ कुछ मिलता नहीं है वे हमसे बिल्कुल न्यारे हैं हमसे सर्व संबंध रहित है, तो ऐसे जो पदार्थ हैं उन पदार्थों पर अगर हम अहम् भी करें, विश्वास भी करें तो हमको क्या मिलनेवाला है? एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को कुछ भी मिलने की व्यवस्था इस लोक में नहीं है। और वास्तव में तो आत्म निर्भर होना चाहिए न! जगत में भी आत्म निर्भरता का काफी महत्व है। आत्मा यदि संपूर्ण पदार्थ है और उसके पास सब कुछ है, सारी समृद्धियाँ हैं तो हमें केवल आत्मनिष्ठ ही होना चाहिए। उस आत्मा की ही रुचि और उस आत्मा का ही अहम् होना चाहिए। तो जब वो अहम् होता है तब तो उसी अहम् को सम्यग्दर्शन कहते हैं। और यदि वह ना हो और विश्व से रुचि घट भी जाए जगत से रुचि घट भी जाए तो फिर अगले भव में सम्यग्दर्शन हो जाता है। लेकिन वो वास्तविक रुचि नहीं कहलाती। वास्तविक रुचि तो सम्यग्दर्शन का ही नाम है। शुद्धात्मा की रुचि इसका नाम सम्यग्दर्शन है।
तो वो अगर नहीं हो होती है फिर भी चित्त में विषय नहीं सुहाते हैं, ऐसा होता है। क्योंकि एक ढिलाई आती है ना उसमें मिथ्यादर्शन में। तो मिथ्यादर्शन में जब ढिलाई आती है तो विषय नहीं सुहाते हैं, जगत भी अच्छा नहीं लगता है, जगत के प्रति राग-द्वेष भी नहीं होते हैं और केवल एक मात्र अपना शुद्धात्मा ही अच्छा लगता है फिर भी कुछ कचास हो, कहीं न कहीं रुचि अटकी हो तो सम्यग्दर्शन नहीं हो पाता, तो वह अगले भव में हो जाता।

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