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  • 2021-12-21
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पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का जीवन परिचय | Hindi Information Video
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पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का जीवन परिचय | Hindi Information Video

छोटी उम्र से ही संघर्षो भरा जीवन जीते दीनदयाल समाज के लिए एक मिसाल है. कहां जाता है की यह एक मध्यम वर्गीय परिवार का हिस्सा थे. उनके दादाजी पंडित हरिराम उपाध्याय एक पौराणिक ज्योतिषी थे. उनके पिता जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर थे और उनकी माता एक धार्मिक रीतिरिवाज को मानने वाली महिला थी. इसके अलावा इनके परिवार में इनके भाई शामिल थे जो उनसे 2 साल छोटे थे.

दीनदयाल उपाध्याय जी का शुरूआती जीवन (Early life of Deen Dayal Upadhyay)

सन 1918 में जब उनके पिता की मृत्यु हुई, तब उनकी उम्र केवल ढाई साल थी. जिससे उनके परिवार का भरण पोषण बंद हो गया था. तब उनके नानाजी जी ने उनके परिवार को संभाला. उसके बाद उनकी माता की भी की बीमारी के चलते मृत्यु हो गई, जिससे दीनदयाल जी एवं उनके भाई दोनों अनाथ हो गए. किन्तु उनका पालन – पोषण उनके ननिहाल में बेहतर तरीके से हुआ. उनका ननिहाल फतेहपुर सीकरी के पास स्थित गाँव गुड की मंडी का था. जब वे केवल 10 वर्ष के थे, तब उनके नाना जी का भी देहांत हो गया था. इस तरह से उन्होंने बहुत छोटी सी उम्र में अपने परिवार को खो दिया था. अब उनका केवल एक ही सहारा था उनका भाई शिवदयाल.

वे दोनों अपने मामा जी के साथ ही रहते थे. उनके मामा ने उन्हें अपने बच्चों की तरह पाला था. दीनदयाल जी अपने भाई से बहुत प्यार करते थे. उनके भाई को छोटी उम्र में ही एक गंभीर बीमारी लग गई थी. जिसके कारण उन्होंने अपने भाई शिवदयाल को एक अभिभावक के रूप में संभाला. किन्तु उनके भाई की 18 नवंबर सन 1934 में उस बीमारी के चलते मृत्यु हो गई. इसके बाद उन्हें अकेलापन लगने लगा, और वे दुखी रहने लगे. क्योंकि अब उसके परिवार का उनके साथ कोई भी नहीं बचा था. किन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और अपनी पढ़ाई पूरी करने का फैसला किया.

उन्होंने सीकर में हाई स्कूल की पढ़ाई की. दीनदयाल जी बचपन से काफी बुद्धिमान एवं उज्ज्वल थे. उन्होंने स्कूल एवं कॉलेज में कई स्वर्ण पदक एवं प्रतिष्ठित पुरस्कार जीते. महाराजा कल्याण सिंह जी ने उन्हें पुरस्कार के रूप में किताबों के लिए ढाइसों रूपये और मासिक आधार पर दस रूपये प्रदान किये. उन्होंने पिलानी में जीडी बिड़ला कॉलेज में प्रवेश लिया था, और वहां उन्होंने इंटरमीडिएट की शिक्षा प्राप्त की. इसमें वे प्रथम श्रेणी में पास हुए. इसके बाद वे कानपूर चले गये. वहां उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय में सनातन धार्मिक कॉलेज से अपनी बी ए यानि स्नातक की डिग्री प्राप्त की. इसमें भी वे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए.

फिर उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एमए करने का फैसला किया और वे उसकी पढाई करने के लिए आगरा गये. किन्तु उनके मामा की बेटी के अचानक बीमार हो जाने के कारण उन्होंने अपनी एमए की पढ़ाई पूरी नहीं की और बीच में ही छोड़ दी. इस दौरान उनकी बहन का भी देहांत हो गया. फिर उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा भी दी, जिसको उन्होंने उत्तीर्ण कर लिया था. लेकिन उनकी रुचि आम जनता के लिए सेवा के प्रति अधिक थी, इसलिए उन्होंने नौकरी नहीं की.

दीनदयाल उपाध्याय जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ (Association With Rashtriya Swayam Sevak Sangh (RSS))

दीनदयाल जी को बचपन से ही समाज सेवा में समर्पित होने के संस्कार प्राप्त थे. सन 1937 में जब उन्होंने अपनी बीए की परीक्षा को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद एमए में प्रवेश लिया था, तब वे अपने दोस्त बलवंत महाशब्दे के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में शामिल हुए. इसमें उनके साथ उनके एक और सहपाठी सुंदर सिंह भंडारी भी इस संघ में शामिल हुए. उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केबी हेडगेवार के साथ मुलाकात की, और खुद को पूरी तरह से संगठन में समर्पित करने का फैसला किया. सन 1942 से वे पूरे समय के लिए इस संघ के साथ जुड़कर उसके लिए काम करने लगे. उन्होंने संघ शिक्षा में प्रशिक्षण लेने के लिए नागपुर में 40 दिनों के ग्रीष्मकालीन आरएसएस शिविर में भाग लिया और फिर इसके प्रचारक बने. सन 1955 में प्रचारक के रूप में उन्होंने उत्तरप्रदेश के लखीमपुर जिले में काम किया.

भारतीय जन संघ का निर्माण (Bharatiya Jana Sangh Party)

सन 1951 में भारतीय जन संघ का निर्माण डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी जी ने किया था, जिसमें दीनदयाल उपाध्याय जी की पहले उत्तरप्रदेश शाखा के महासचिव और बाद में अखिल भारतीय महासचिव के रूप में नियुक्ती हुई. डॉ श्यामा प्रसाद जी उनकी बुद्धिमत्ता और विचारधारा से इतने प्रभावित थे, कि उन्होंने उनके लिए कहां की –“अगर मेरे पास दो दीनदयाल होते, तो मैं भारत के राजनीतिक चेहरे को बदल देता”. किन्तु सन 1953 में डॉ श्यामा प्रसाद जी की मृत्यु हो जाने के कारण इस संघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गई. वे इससे 15 सालों तक जुड़े रहे और यह भारत की मजबूत राजनीतिक पार्टी में से एक बन गई और वे इस पार्टी के अध्यक्ष बने. उसके बाद वे उत्तरप्रदेश के लोकसभा चुनाव के लिए खड़े हुए, लेकिन वे लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में नाकाम रहे और इस चुनाव में उनकी हार हुई. वर्तमान में यही भारतीय जनसंघ को भारतीय जनता पार्टी के नाम से जाता है.

ये एक राजनेता के अलावा एक लेखक भी थे. इन्होंने आजादी से पहले लखनऊ में एक मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन किया, जिसके बाद उनके इस गुण की पहचान हुई.

साहित्यिक कृतियाँ सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, जगतगुरु शंकराचार्य, अखंड भारत क्यों?, भारतीय अर्थनीति : विकास की दिशा, दो योजनायें : वादे, प्रदर्शन, संभावनाएं, राष्ट्र जीवन की समस्याएं, डिवैल्यूएशन : ए ग्रेट फॉल, राजनीतिक डायरी, राष्ट्र चिन्तन, इंटीग्रल हुमानिस्म और राष्ट्र जीवन की दशा आदि.

भारत में नैतिकता के सिद्धांत को धर्म के रूप में जाना जाता है – यह जीवन का नियम है.
नैतिकता के सिद्धांत किसी भी व्यक्ति द्वारा नहीं बनाये जाते, बल्कि उन्हें खोजा जाता है.

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