Ashok ki Chinta - Jaishankar Prasad | Ashok After Kalig Yuddha | By Preeti Jog

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Ashok ki Chinta - Jaishankar Prasad | Ashok After Kalig Yuddha | By Preeti Jog

अशोक की चिन्ता- जयशंकर प्रसाद
जलता है यह जीवन पतंग

जीवन कितना? अति लघु क्षण,
ये शलभ पुंज-से कण-कण,
तृष्णा वह अनलशिखा बन
दिखलाती रक्तिम यौवन।
जलने की क्यों न उठे उमंग?
जलने की क्यों न उठे उमंग?

जलता हैं यह जीवन पतंग।

हैं ऊँचा आज मगध शिर
पदतल में विजित पड़ा,
दूरागत क्रन्दन ध्वनि फिर,
क्यों गूँज रही हैं अस्थिर
कर विजयी का अभिमान भंग?
कर विजयी का अभिमान भंग?

जलता हैं यह जीवन पतंग।

इन प्यासी तलवारों से,
इन पैनी धारों से,
निर्दयता की मारो से,
उन हिंसक हुंकारों से,

नत मस्तक आज हुआ कलिंग।
नत मस्तक आज हुआ कलिंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

यह सुख कैसा शासन का?
शासन रे मानव मन का!
गिरि भार बना-सा तिनका,
यह घटाटोप दो दिन का

फिर रवि शशि किरणों का प्रसंग!
फिर रवि शशि किरणों का प्रसंग!

जलता हैं यह जीवन पतंग।

यह महादम्भ का दानव
पीकर अनंग का आसव
कर चुका महा भीषण रव,
सुख दे प्राणी को मानव
तज विजय पराजय का कुढंग।
तज विजय पराजय का कुढंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

संकेत कौन दिखलाती,
मुकुटों को सहज गिराती,
जयमाला सूखी जाती,
नश्वरता गीत सुनाती,

तब नही थिरकते हैं तुरंग।
तब नही थिरकते हैं तुरंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

बैभव की यह मधुशाला,
जग पागल होनेवाला,
अब गिरा-उठा मतवाला
प्याले में फिर भी हाला,

यह क्षणिक चल रहा राग-रंग।
यह क्षणिक चल रहा राग-रंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

काली-काली अलकों में,
आलस, मद नत पलकों में,
मणि मुक्ता की झलकों में,
सुख की प्यासी ललकों में,

देखा क्षण भंगुर हैं तरंग।
देखा क्षण भंगुर हैं तरंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

फिर निर्जन उत्सव शाला,
नीरव नूपुर श्लथ माला,
सो जाती हैं मधु बाला,
सूखा लुढ़का हैं प्याला,

बजती वीणा न यहाँ मृदंग।
बजती वीणा न यहाँ मृदंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

इस नील विषाद गगन में
सुख चपला-सा दुख घन मे,
चिर विरह नवीन मिलन में,
इस मरु-मरीचिका-वन में

उलझा हैं चंचल मन कुरंग।
उलझा हैं चंचल मन कुरंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

आँसु कन-कन ले छल-छल
सरिता भर रही दृगंचल;
सब अपने में हैं चंचल;
छूटे जाते सूने पल,

खाली न काल का हैं निषंग।
खाली न काल का हैं निषंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

वेदना विकल यह चेतन,
जड़ का पीड़ा से नर्तन,
लय सीमा में यह कम्पन,
अभिनयमय हैं परिवर्तन,

चल रही यही कब से कुढंग।
चल रही यही कब से कुढंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

करुणा गाथा गाती हैं,
यह वायु बही जाती है,
ऊषा उदास आती हैं,
मुख पीला ले जाती है,

वन मधु पिंगल सन्ध्या सुरंग।
वन मधु पिंगल सन्ध्या सुरंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

आलोक किरन हैं आती,
रेश्मी डोर खिंच जाती,
दृग पुतली कुछ नच पाती,
फिर तम पट में छिप जाती,

कलरव कर सो जाते विहंग।
कलरव कर सो जाते विहंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

जब पल भर का हैं मिलना,
फिर चिर वियोग में झिलना,
एक ही प्राप्त हैं खिलना,
फिर सूख धूल में मिलना,

तब क्यों चटकीला सुमन रंग?
तब क्यों चटकीला सुमन रंग?

जलता हैं यह जीवन पतंग।

संसृति के विक्षत पर रे!
यह चलती हैं डगमग रे!
अनुलेप सदृश तू लग रे!
मृदु दल बिखेर इस मग रे!

कर चुके मधुर मधुपान भृंग।
कर चुके मधुर मधुपान भृंग।

जलता हैं यह जीवन पतंग।

भुनती वसुधा, तपते नग,
दुखिया है सारा अग जग,
कंटक मिलते हैं प्रति पग,
जलती सिकता का यह मग,

बह जा बन करुणा की तरंग,
बह जा बन करुणा की तरंग,

जलता हैं यह जीवन पतंग।
जलता हैं यह जीवन पतंग।

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