Bhagavad Gita Part 42 (Shlok 2.59) मिलता है सच्चा सुख केवल भगवान तुम्हारे चरणों में।

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भगवद् गीता अध्याय २ : सांख्य योग, श्लोक ५९
Bhagavad Gita Chapter 2: Sānkhya Yog, Verse 59

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥

यद्यपि देहधारी जीव इन्द्रियों के विषयों से अपने को कितना दूर रखे लेकिन इन्द्रिय विषयों को भोगने की लालसा बनी रहती है फिर भी जो लोग भगवान को जान लेते हैं, उनकी लालसाएँ समाप्त हो जाती हैं।

Aspirants may restrain the senses from their objects of enjoyment, but the taste for the sense objects remains. However, even this taste ceases for those who realizes the Supreme.

जब कोई व्यक्ति उपवास रखते समय भोजन ग्रहण करना छोड़ देता है तब इन्द्रिय तृप्ति की इच्छा क्षीण हो जाती है। इसी प्रकार रोगी व्यक्ति में भी विषय भोगों की रुचि कम हो जाती है। ऐसी विरक्ति अस्थायी होती है क्योंकि मन में कामनाओं के बीज विद्यमान रहते हैं। जब उपवास समाप्त हो जाता है या रोग दूर हो जाता है, तब कामनाएँ पुनः जागृत हो जाती है। कामनाओं की जड़ क्या है?

भगवान के दिव्य सुख को प्राप्त करना आत्मा की आंतरिक प्रकृति है जो कि भगवान का अणु अंश है। जब तक इसे यह दिव्य सुख नहीं मिलता तब तक आत्मा भी तृप्त नहीं होती और उसकी सुख की खोज निरन्तर जारी रहती है। साधक बलपूर्वक अपनी इन्द्रियों को विषय भोगों से दूर रख सकते हैं। किन्तु इस प्रकार का संयम अस्थायी होता है क्योंकि वे इन्द्रिय विषयों को भोगने की आंतरिक लालसा की ज्वालाओं का शमन नहीं कर सकते। जब आत्मा भगवान की भक्ति में तल्लीन हो जाती है और दिव्य सुख प्राप्त करती है तब उसे दिव्य प्रेमरस की अनुभूति होती है जिसे प्राप्त करने के लिए वह अनन्त जन्मों तक तरसती रही थी।

तैत्तिरीयोपनिषद् में वर्णन है :

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्धवाऽऽनन्दी भवति।

(तैत्तिरीयोपनिषद्-2.7)

" भगवान सत्-चित्-आनन्द हैं। जब आत्मा भगवान को पा लेती है तब वह आनंदमयी हो जाती है और तब मुनष्य में स्वाभाविक रूप से निकृष्ट सांसारिक विषय भोगों के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो जाती है। भगवद्भक्ति से प्राप्त यह विरक्ति स्थायी और अविचल होती है।" इस प्रकार भगवद्गीता कामनाओं के दमन का कोरा उपदेश देने के स्थान पर उन्हें भगवान की ओर निर्देशित कर सुन्दर उदात्तीकरण के मार्ग पर अग्रसर होने का ज्ञान देती है। संत रामकृष्ण परमहंस इस सिद्धांत को अत्यंत भावपूर्ण ढंग से व्यक्त करते हुए कहते हैं, "भक्ति परम सत्ता के प्रति दिव्य प्रेम है जिसके प्राप्त होने पर निकृष्ट भाव स्वतः समाप्त हो जाते हैं।"

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स्वामी मुकुंदानंद एक प्रसिद्ध भक्ति योग संत, मन नियंत्रण के प्रवक्ता, आध्यात्मिक एवं योग शिक्षक और जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के वरिष्ठ शिष्य हैं। स्वामीजी एक अभूतपूर्व योग प्रणाली 'जगदगुरु कृपालु जी योग ' (JKYog) के संस्थापक है। एक इंजीनियर (आईआईटी) और प्रबंधन (आईआईएम) स्नातक के रूप में स्वामीजी का प्रशिक्षण उन बुद्धिजीवियों को बहुत आकर्षित करता है, जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ आध्यात्मिकता सीखना चाहते हैं। ईश्वर के विषय में सच्चे दर्शन को प्रस्तुत करने की उनकी अनूठी और उच्च पद्धतिगत प्रणाली आज की दुनिया में अत्यंत दुर्लभ है। उनकी उपस्थिति भगवान् और उन सभी आत्माओं के प्रति प्रेम का संचार करती है जो मार्गदर्शन के लिए उनसे संपर्क करते हैं।

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