धर्म क्या है?
धर्म की वास्तविक परिभाषा—
‘धर्म’ शब्द का अर्थ बहुधा पूजा-पाठ, व्रत, उपवास या किसी परम्परा में लिप्तता से जोड़ दिया जाता है, किन्तु वैदिक दृष्टि में धर्म का स्वरूप कहीं अधिक व्यापक, सार्वभौमिक और वैज्ञानिक है। संस्कृत में ‘धर्म’ उस व्यवस्था, कर्तव्य और गुण का बोधक है, जो किसी व्यक्ति, समाज या वस्तु को उसके मूल स्वभाव में बनाए रखता है।
प्रकृति की प्रत्येक वस्तु का एक प्राकृतिक धर्म है— अग्नि का धर्म जलाना, जल का धर्म शीतलता और दाह को शान्त करना, वायु का धर्म प्राणियों को जीवन देना। इसी भांति मनुष्य का भी एक सनातन धर्म है—मानवीयता, सह-अस्तित्व, न्याय और करुणा।
धर्म, मत, मजहब और रिलीजन का भेद—
बहुत बार धर्म को पन्थ, मत या मजहब का पर्यायवाची मान लिया जाता है। लेकिन धर्म और ये सभी शब्द मूलतः भिन्न हैं। मत, मजहब, रिलीजन – ये सब समय-समय पर मनुष्यों द्वारा निर्मित व्यवस्था, सिद्धान्त या परम्पराएँ हैं, जबकि धर्म शाश्वत है; प्रकृति और जीवन के नियमों के अनुरूप है। धर्म का कोई सटीक अनुवाद किसी भाषा में सम्भव नहीं, क्योंकि यह अकेला शब्द ब्रह्माण्ड में तारतम्य और सन्तुलन स्थापित करता है।
धर्म के वैदिक सूत्र—
वेद, उपनिषद, महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्र ‘धर्म’ की व्याख्या इस प्रकार करते हैं—
◾महर्षि कणाद के अनुसार— जिससे व्यक्ति की लौकिक एवं पारलौकिक– दोनों उन्नति हो, वही धर्म है।
◾भीष्म पितामह के अनुसार— जिससे सभी प्राणियों का उत्थान हो, वही धर्म है।
◾महाभारत में बार-बार ‘अहिंसा परमो धर्मः’ (अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है) कहा गया है।
◾मनु स्मृति के अनुसार, धर्म के लक्षण— धैर्य, क्षमा, आत्मसयंम, इन्द्रिय-निग्रह, विद्या, सत्य, क्रोध-नियन्त्रण, पवित्रता एवं परोपकार हैं।
धर्म का लक्षण—
1. सर्व-कल्याण
धर्म वह है, जिससे सम्पूर्ण समाज, समस्त प्राणी-जाति, प्रकृति और ब्रह्माण्ड का कल्याण सुनिश्चित हो।
2. नैतिक आचरण
ये केवल पूजा-पद्धति या परम्परा नहीं, बल्कि सत्य, अहिंसा, दया, आत्म-संयम, अस्तेय (जो मेरा अधिकार नहीं, उसकी इच्छा न करना) जैसे नैतिक मूल्यों की स्थापना है।
3. धारण करने योग्य
धर्म, वह शक्ति है, जो सम्पूर्ण जगत् को, समाज को, प्रत्येक प्राणी को थामे हुए है। जो मानव मात्र और प्रकृति को जोड़ती है।
4. तर्क और विवेक
धर्म में तर्क, विवेक और अनुसंधान को प्राथमिकता दी गई है। बिना तर्क के धर्म केवल विश्वास रह जाता है।
5. मानवता
सनातन धर्म केवल मानवता है, जिसका मूल तत्व प्रेम, सत्य, करुणा और विश्व-बन्धुत्व है।
कर्मकाण्ड या असल कर्तव्य?
धर्म का अर्थ न तो केवल पूजा, व्रत, तीर्थयात्रा, या तिलक, माला–धारण करना है, न केवल किसी जाति, समाज या मजहब का पालन। यदि यह क्रियाएँ किसी के कल्याण, भलाई या प्रकृति के संरक्षण में योगदान नहीं देतीं, तो वे सिर्फ कर्मकाण्ड रह जाती हैं, धर्म नहीं।
सच्चा धर्म वही है, जिससे आत्मा और लोक दोनों का कल्याण हो, समाज में शान्ति तथा सभी का भला हो। हिंसा, द्वेष, छल, कपट, असत्य, अन्याय कभी धर्म नहीं हो सकते। मन, वाणी और कर्म से किसी को दुखी न करना तथा अन्याय के विरोध में खड़े होना— यही धर्म की कसौटी है।
क्यों आवश्यक है धर्म?
◾धर्म सम्पूर्ण जीवन और सृष्टि में सन्तुलन बनाए रखने का प्राकृतिक नियम है।
◾असली धर्म अपनाने से व्यक्ति, समाज और विश्व में शांति, समृद्धि, और परस्पर प्रेम सम्भव है।
◾धर्म के नाम पर उग्रता, हिंसा, कट्टरता या भेदभाव नहीं बल्कि उदारता, शान्ति और सह-अस्तित्व का प्रसार होना चाहिए।
निष्कर्ष—
‘धर्म’ कोई सीमित अवधारणा नहीं, बल्कि प्रकृति का मूलभूत सूत्र है— वह आधार, जिस पर सम्पूर्ण सृष्टि टिकी है। सनातन धर्म का मूल सन्देश है— ‘‘मानवता ही धर्म है और धर्म ही सबका कल्याण है।’’ यह अनुकरणीय मार्ग है, जिसका अनुसरण कर मनुष्य समस्त जीव-जगत और प्रकृति के साथ समन्वय, सद्भाव और शान्ति स्थापित कर सकता है।
—आचार्य अग्निव्रत
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