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Скачать или смотреть महिषासुर शहादत दिवस | असुर | नवदुर्गा और दशहरा | आदिम जनजाति

  • The Marxist Analyser - Saurabh Insaan
  • 2023-10-26
  • 1246
महिषासुर शहादत दिवस | असुर | नवदुर्गा और दशहरा | आदिम जनजाति
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Описание к видео महिषासुर शहादत दिवस | असुर | नवदुर्गा और दशहरा | आदिम जनजाति

दशहरा और दुर्गापूजा के साथ ही कहीं न कहीं से कोई ऐसी खबर आ ही जाती है, या फिर सोशल मीडिया पर ऐसी कोई पोस्ट दिख ही जाती है जिससे पता चलता है कि कहीं कुछ लोग महिषासुर को शहीद मानकर उसका शहादत दिवस मना रहे हैं और कुछ दूसरे लोग उनका विरोध कर रहे हैं, उन्हें धर्मविरोधी या देशद्रोही बताते हुए गालियाँ दे रहे हैं।
कोई भी सामान्य समझ का व्यक्ति यह जानता है कि विजेताओं का अपना अलग इतिहास होता है और पराजितों का अपना। दोनों अपने-अपने पक्ष रखते हैं और अपने-अपने अलग नायक चुनते हैं।
जैसे राम-रावण युद्ध पर लिखे गए महाग्रंथ ‘रामायण’ में राम को नायक माना गया है और रावण को खलनायक। ‘रामचरितमानस’ लिखने वाले तुलसीदास ने तो भक्तिभाव के चलते राम के जीवन से जुड़े कई ऐसे बिंदुओं का जिक्र ही नहीं किया जिनको ले कर राम की आलोचना की जा सके - जैसे गर्भवती पत्नी को वन भेजना, छुपकर बाली की हत्या करना वगैरह। लेकिन कई ब्राह्मणों व आदिवासी समुदायों में रावण को अपनी-अपनी तरह से नायक माना जाता है और राम के दोष गिनाए जाते हैं।
सारस्वत ब्राह्मण रावण को अपना पूर्वज मानते हैं। ग्रेटर नोएडा में रावण का एक मंदिर भी है जिसमें तमाम लोग लंकेश की पूजा करते हैं। मध्य प्रदेश के मंदसौर में भी लोग रावण की पूजा करते हैं। मथुरा के एक वकील साहब ओमप्रकाश जी तो रावण का पुतला जलाने पर प्रतिबंध लगाने की मांग के साथ प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट तक को पत्र लिख चुके हैं।
खुद को मूलनिवासी कहने वाले भारतीयों के इतिहास में राम असल में शुंग वंश के राजा ‘पुष्यमित्र शुंग’ का ही काल्पनिक नाम है जिसने बौद्ध धर्म से जुड़े राजाओं और उनके सहयोगियों का नरसंहार किया और तमाम बौद्ध मठों को उजाड़ दिया, जिस कारण भारत से निकल कर दुनिया भर में फैला बौद्ध धर्म खुद भारत में ही पिछड़ गया। इसीलिए अनेकों समुदाय दशहरे पर रावण के पुतला दहन का अलग-अलग तर्क देकर विरोध करते हैं। सन् 2008 में झारखंड के मुख्यमंत्री और आदिवासी नेता शिबू सोरेन ने दशहरा मेला आयोजन में जाने से इसलिए मना कर दिया था क्योंकि वे रावण को अपना आराध्य मानते थे।
इसी तरह महिषासुर और दुर्गा माँ का मामला है।
दरअसल जिस सुर-असुर संग्राम को हम हिन्दू पुराणों में पढ़ते आए हैं, उसे अनेकों समुदाय नगरीय सभ्यता का विकास करने वाले आर्यों और प्राकृतिक संपदा (यानि जंगल, नदी, पहाड़) की ‘रक्षा’ करने वाले ‘राक्षसों’ या असुरों या आदिवासियों के बीच का युद्ध मानते हैं।
शायद आपको जान कर आश्चर्य होगा कि झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों में आज भी ‘असुर’ नामक जनजाति के लोग रहते हैं। संथाल, भूमिज, कुडमी और कुछ दलित भी इनके रीति-रिवाजों में शामिल होते हैं। गुमला, सिंहभूम और चाकुलिया जैसे इलाकों में इनकी संख्या काफी है। रांची से 150 किलोमीटर दूर सखुअपनी और जोभापाट जैसे क्षेत्रों में इनकी खूब रिहाइश है।
2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में 22,459 असुर रहते हैं। यह एक अति पिछड़ी आदिम जनजाति है जिसके अधिकांश सदस्य अनपढ़ और बेहद गरीब हैं।
असुर जनजाति तथा कुछ अन्य समुदाय के लोग महिषासुर को अपना पूर्वज और गरीबों का मसीहा मानते हैं। वे महिषासुर का असली नाम हुदुड दर्गी बताते हैं। वे मानते हैं कि महिषासुर महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे इसलिए आर्यों ने दुर्गा को भेज कर उन्हें छल से मरवा दिया था। इसीलिए जब देश भर में नवदुर्गा और दशहरा मनाया जाता है, तब ये लोग महिषासुर की शहादत को याद कर शोक मनाते हैं। इस मौके पर वे दसाई और कांठी नृत्य करते हैं जो कि प्रसिद्ध tribal dance of india हैं। दशहरा जैसे त्यौहार को ये लोग नस्लीय भेदभाव तथा इंसानी गरिमा के हनन का प्रतीक मानते हैं।
इसी तरह कर्नाटक के तमाम लोग मानते हैं कि महिषासुर एक महान उदार द्रविड़ शासक थे जिन्होंने अपने लोगों की लुटेरे-हत्यारे आर्यों से रक्षा की थी। उनके राज्य में यज्ञ और हवन के नाम पर पेड़-पौधों को काटने और पशुओं की बलि देने पर रोक लगी हुई थी। इसी वजह से वैदिक परंपरा को मानने वालों से उनका झगड़ा होता था। मैसूर राज्य का नाम उन्हीं के नाम के आधार पर पड़ा था।
महिषासुर वास्तव में कोई राजा था या नहीं, मैं इसका दावा तो नहीं कर सकता लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि जिन असुरों के बारे में हिन्दुओं की पौराणिक कथाएँ बताती हैं कि वे मनुष्य नहीं होते, कि उनके लंबे-लंबे दाँत और सींग होते हैं, उन असुरों की सच्चाई यह है कि वे असल में ठीक हमारे जैसे ही शरीर वाले मनुष्य होते हैं और उनमें भी हमारी ही तरह कुछ अच्छे तो कुछ बुरे लोग होते हैं।
और ये लोग चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ी इनके इतिहास के सच को जाने और अपने पुरखों की इज्जत करे, इसीलिए वे महिषासुर शहादत दिवस जैसे आयोजन करते हैं। वे मानते हैं कि अगर उनके पुरखों के नरसंहार का जश्न मनाने के लिए लोग त्यौहार मनाते हैं, तो उनके शोक मनाने से भी किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अब कायदे से देखा जाए, तो ये लोग अपने रीति-रिवाजों को ही तो मनाते हैं, जो कि उनका संवैधानिक अधिकार भी है। इससे भला किसी को क्या परेशानी हो सकती है।
लेकिन चूंकि इस देश की सत्ता, संस्कृति और संस्थानों पर सदियों से उन समुदायों का दबदबा रहा है जो आदिवासियों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते, जो आदिवासियों की संस्कृति और उनके इतिहास से अनजान हैं, जो कार्पोरेट्स के मुनाफे के लिए आदिवासियों को उनके जंगलों से पुलिस और सैन्यबलों की बंदूकों की नोक के बल पर बेदखल कर देते हैं; इसलिए उनकी मीडिया (मतलब प्राचीन पुराणों से लेकर आज के न्यूज चैनल्स और अखबार वगैरह तक) हमारी मानसिकता पर हावी रहते हैं और हम हर उस शख्स को दुश्मन, अपराधी और देशद्रोही मान लेते हैं जो हमसे अलग सोचता हो।
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    4 месяца назад
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