1835-36 में भारत के गवर्नर जनरल रहे चार्ल्स मेटकाफ ने कहा था- ‘भारत के छोटे-छोटे गाँव एक सधा हुए गणतंत्र है, जहाँ बिना किसी बाहरी मदद के हर चीज उपलब्ध है। कई राजे-रजवाड़े आए, क्रांतियाँ आई-गईं। लेकिन ग्रामीण समुदाय अक्षय रहा।’ लेकिन करीब 200 साल बाद आज ऐसी परिस्थिति कहीं नजर नही आ रही। आज ज़रुरत इस बात की है कि भारत का गाँव और भारतीय कृषि पुनः स्वावलंबी बने। इस दिशा में मध्यप्रदेश के इंदौर में रहने वाले 81 वर्षीय श्री अरुण डीके ने ‘जैविक ग्राम रंगवासा’ के जरिए वह कर दिखाया जिसे हम सबको करना चाहिए।
इंदौर से महज 10 किलोमीटर की दूरी पर 8 एकड़ में बसा यह है ‘जैविक ग्राम रंगवासा’। 2007 में पंजीकृत इस संस्था के प्रणेता श्री अरुण डीके ने 1964 में कृषि संकाय में एमएससी करने के बाद 1972 तक कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जुड़कर कीटनाशक की बिक्री की। लेकिन उन्हें समझ आया कि ये कंपनियाँ सिर्फ डॉलर कमा रही हैं, किसानों से इन्हें कोई सरोकार नही है। नौकरी छोड़ी तो इंदौर के नंदलालपुरा में रासायनिक खाद और कीटनाशक की दुकान खोली। 14 सालों तक यह काम किया लेकिन फिर समझ आया कि खुद की कमाई तो हो रही है मगर किसान तो यहाँ भी मर ही रहा है। इसी बीच उन्होंने एक किताब पढी ‘द सिक्रेट लाईफ ऑफ प्लांट्स’। यह किताब पढकर उन्होंने दुकान पर ताले जड़ दिए। तभी से जैविक खेती की शुरुआत कर दी। मध्यप्रदेश में पहली बार 10,000 केंचुओं की पहली खेप मुंबई से लाई गई।
साल 2006 में उनके जन्मदिन पर राऊ-रंगवासा में परिवार की तरफ से तोहफे में मिली 8 एकड़ जमीन पर उन्होंने जैविक ग्राम की कल्पना की। उस वक्त कई तरह की चुनौतियाँ सामने थीं।
• रासायनिक खेती का जबरदस्त प्रचार
• अधिक उत्पादन की होड़
• पर्यावरण और पारिस्थितिकी के प्रति अनभिज्ञता (उपेक्षा)
• स्थानिकता के प्रति अरुचि
• एकल फसल पर निर्भरता
• हाथों से काम न करने की आदत का बढ़ना
• बाजार पर जबरदस्त निर्भरता
8 एकड़ में दालें (मूँग, तुअर, उड़द,चना), अनाज (ज्वार, बाजरा, मक्का, गेंहूँ, कोदो, कुटकी, राला, जौ, जई और धान), तिलहन (अलसी, तिल, मूँगफली, रामतिल), फल (पपीता, चीकू, अमरूद, आम, आंवला, सीताफल, इमली, कबीट और केला), मसाले (हल्दी), सब्जी (अंबाडी की भाजी, बैंगन, गोभी, पत्ता गोभी, टमाटर, मेथी, धनिया, ग्वार फली, सेम, देसी भिंडी, तोरई, गिलकी, आलू, प्याज और लहसुन), फूल (गेंदा, गुलाब, तुलसी), नकदी फसलें (गन्ना, कपास, एलोवेरा) ली जा रही हैं। उगाई जाने वाली फसलों से कई उत्पाद तैयार किए जा रहे हैं। जिसमें सूती कपड़ा, साबुन, घानी का तेल, इत्र, पीनट बटर, अचार, मुरब्बा, पापड़, चटनियाँ आदि चीजें बनाई जा रही हैं।
संस्था केंचुआ खाद और जीवामृत तैयार कर फसलों में इस्तेमाल करती है। शुष्क शौचालय के जरिए भी खाद तैयार की जा रही है। बीते 12 सालों से खेती में किसी तरह की कोई रासायनिक खाद नहीं डाली गई। तालाब और कुओं से सिंचाई की जाती है। गंगम्मा मॉडल से जल संचय किया जाता है। इसमें नहाने के पानी का सदुपयोग पौधों के लिए होता है। यहाँ देश-विदेश से लोग प्रशिक्षण लेने भी आ रहे हैं। अब तक 6 हजार लोग प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं। इनमें से 15 से 20 प्रतिशत लोग जैविक खेती की तरफ़ आगे बढे हैं। गोदाम को छोड़कर कहीं भी लोहे के सरिए का इस्तेमाल नहीं किया गया। ग्रामीण परिवेश वाला प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल कर आवास का निर्माण भी किया गया है।
यहाँ यहाँ आने वाले मेहमानों को स्वादिष्ट जैविक भोजन परोसा जाता है। सूर्य ऊर्जा से भोजन का निर्माण किया जाता है। यहाँ तैयार होने वाले तेल से लालटेन और दीये जलाए जाते हैं। यहाँ की मिट्टी से मिलने वाले बैक्टीरिया से जैविक खाद और कीटनाशक तैयार किया जाता है। इंदौर बायोटेक के उत्पादों को भी यहीं जाँचा- परखा जाता है।
रंगवासा जैविक ग्राम में प्राचीन ग्रामीण भारत की एक झलक है। भारत के गाँवों को रंगवासा की तरह अपनी जड़ों की तरफ लौटना होगा। आर्थिक सक्षम, सुरक्षित और सेहतमंद भविष्य के लिए असली अर्थों में यही आत्मनिर्भर भारत का मूल स्वरूप है।
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