Buddha's theory of #Dependent_Origination is today's #science_of_relativity
प्रतीत्यसमुत्पाद सारे बुद्ध के विचारों की रीढ़ है
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है। प्राणियों के लिये इसका अर्थ है - कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र। क्योंकि सब कुछ अनित्य और अनात्म (बिना आत्मा के) होता है, कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है। हर घटना मूलतः शून्य होती है। परंतु, मानव, जिनके पास ज्ञान की शक्ति है, तृष्णा को, जो दुःख का कारण है, त्यागकर, तृष्णा में नष्ट की हुई शक्ति को ज्ञान और ध्यान में बदलकर, निर्वाण पा सकते
बुद्ध ने भिक्षुओं को उन्होंने उस विज्ञान को भी बताया कि आखिर जन्म-जरा-मरण के दुःख से मुक्ति कैसे संभव होती है। इस विज्ञान को #पटिच्चसमुत्पाद (प्रतीत्यसमुत्पाद) कहते हैं। प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धान्त सापेक्ष कारणतावाद, मध्यमा, प्रतिपदा भी कहलाता है प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ होता है किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति होती है। अर्थात यह होने से वह होता है। अस्मिन सति इदं भवति। यह सापेक्ष कारणतावाद है। इसके अनुसार किसी भी चीज की उत्पत्ति बिना कारण के नहीं होती। दुःख है तो इसके कारण हैं। ये कारण एक श्रृंखला या समुदाय में हैं। एक दूसरे से जुड़े हुए। इसे द्वादश निदान कहते हैं। ये हैं जरा-मरण, जाति, भव, उपादान, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, षडायतन, नामरूप, विज्ञान, संस्कार, तथा अविद्या। अब प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत के अनुसार अविद्या यानि अज्ञान को ज्ञान से हम अपदस्थ करते हैं। अविद्या के नाश से संस्कार का नाश या निरोध हो जाता है। फिर संस्कार के निरोध से विज्ञान, विज्ञान के निरोध से नामरूप, नामरूप के निरोध से षडायातन (पांच इन्द्रियां और मन), षडायातन के निरोध से स्पर्श, स्पर्श के निरोध से वेदना, वेदना के निरोध से आसक्ति, आसक्ति के निरोध से तृष्णा, तृष्णा के निरोध से उपादान (पांच कमेंद्रिय और बुद्धि ), उपादान के निरोध से भव, भव के निरोध से जाति (जन्म) और जन्म के निरोध से जरा-मरण का निरोध हो जाता है।
बुद्ध के लिए दुःख-निरोध प्राथमिक समस्या थी। उन्होंने भिक्षुओं से कहा –
इदं खो पन भिक्खवे दुक्खम अरिय सच्चं जाति पि दुक्खा, जरापि दुक्खा, मरणम्पि दुक्खा, सोक परिवेद-दोमनस्सुपायसापि दुक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो, यम्पिच्छं न लभति दुक्खम, सांख्यित्तेन पंचूपादानक्खन्धापि दुक्खा।
– मञ्झिम -निकाय
(भिक्षुओं ! दुःख आर्य सत्य है। जन्म दुःख, बुढ़ापा दुःख ,मरण दुःख, शोक, परिवेदन, उदासी, परेशानी दुःख। अप्रिय से जुड़ना और प्रिय से टूटना दुःख, इच्छित वस्तु का न मिलना दुःख, संक्षेप में यह कि राग द्वारा उत्पन्न पाँचों स्कंध यानी रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान दुःख है)
प्रतीत्यसमुत्पाद का यह सिद्धांत ढाई हजार वर्ष से अधिक पुराना है। तबसे विज्ञान और तकनीक ने बहुत उन्नति कर ली है। आज के नजरिये से देखने पर कुछ मामलों में यह अजीबोगरीब लग सकता है। लेकिन सापेक्ष-कारणतावाद युक्त प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत ही आधुनिक विज्ञान का आधार है, यह स्पष्ट दिखता है। सांख्य दर्शन का सत्कार्यवादी विचार कि कार्य अपनी उत्पति के पूर्व कारण में मौजूद होता है और वैशेषिक के इस विचार कि कार्य अपने कारण से सर्वथा भिन्न एवं पृथक है, से हट कर प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कार्य न तो कारण में पूरी तरह विद्यमान है न ही पूरी तरह भिन्न है, बल्कि कार्य अपनी उत्पति के लिए कारण पर आश्रित अथवा अवलम्बित है।
प्रतीत्यसमुत्पाद की व्याख्या लगातार होती रही है, आगे भी होगी। बौद्ध दर्शन का यही केन्द्रक है। इसके कारण ही बौद्ध दर्शन का वैशिष्ट्य है। आश्चर्य यह होता है कि इतने पुराने जमाने में बुद्ध ने विज्ञान की बारीकियों को इस तरह समझा था। उनके अनुसार यह विश्व एक नैरंतर्य में बिना किसी स्थिरता के साथ है। कोई भी चीज यहां स्थिर नहीं है, न नाम और न ही रूप। मनुष्य को प्रज्ञा, शील और समाधि के सहयोग से इस निरंतरता के बीच ही दुःख-निरोध के प्रयास करने हैं। यह प्रयास बुद्ध को नहीं, व्यक्ति अथवा जातक को ही करने हैं –
तुम्हेहि किच्चं आतप्पं अक्खातारो तथागता।
पटिपन्ना पमोक्खन्ति झाइनो मारबंधना।
– धम्मपद (मग्गवग्ग 20 / 4)
तुम्हें ही उद्यम करने होंगे। तथागत के उपदेश सुनने से दुःखनिरोध नहीं होंगे, चलने से होंगे। तथागत का काम केवल रास्ता बताना था, उस पर चलना तुम्हारा काम है। इस रास्ते पर चल कर ही कोई मार के बंधन से मुक्त होगा।
प्रतीत्यसमुत्पाद सारे बुद्ध विचारों की रीढ़ है। बुद्ध पूर्णिमा की रात्रि में इसी के अनुलोम-प्रतिलोम अवगाहन से बुद्ध ने बुद्धत्व का अधिगत किया। प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान ही बोधि है। यही प्रज्ञाभूमि है। अनेक गुणों के विद्यमान होते हुए भी आचार्यों ने बड़ी श्रद्धा और भक्तिभाव से ऐसे भगवान बुद्ध का स्तवन किया है,जिन्होंने अनुपम और अनुत्तर प्रतीत्यसमुत्पाद की देशना की है। चार आर्यसत्य, अनित्यता, दु:खता,अनात्मता क्षणभङ्गवाद, #अनात्मवाद, अनीश्वरवाद आदि बौद्धों के प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धान्त इसी #प्रतीत्यसमुत्पाद_के_प्रतिफलन हैं।
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