साहित्य अकादमी 2024 गगन गिल "मैं जब तक आई बाहर"। शीर्षक कविता का मूल पाठ स्वर: डॉ. जितेंद्र भगत

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साहित्य अकादमी 2024 गगन गिल "मैं जब तक आई बाहर"। शीर्षक कविता का मूल पाठ स्वर: डॉ. जितेंद्र भगत


मैं जब तक आर्ई बाहर
गगन गिल

मैं जब तक आई बाहर
एकांत से अपने

बदल चुका था
रंग दुनिया का

अर्थ भाषा का
मंत्र और जप का

ध्यान और प्रार्थना का
कोई बंद कर गया था

बाहर से
देवताओं की कोठरियाँ

अब वे खुलने में न आती थीं
ताले पड़े थे तमाम शहर के

दिलों पर
होंठों पर

आँखें ढँक चुकी थीं
नामालूम झिल्लियों से

सुनाई कुछ पड़ता न था
मैं जब तक आई बाहर

एकांत से अपने
रंग हो चुका था लाल

आसमान का
यह कोई युद्ध का मैदान था

चले जा रही थी
जिसमें मैं

लाल रोशनी में
शाम में

मैं इतनी देर में आई बाहर
कि योद्धा हो चुके थे

अदृश्य
शहीद

युद्ध भी हो चुका था
अदृश्य

हालाँकि
लड़ा जा रहा था

अब भी
सब ओर

कहाँ पड़ रहा था
मेरा पैर

चीख़ आती थी
किधर से

पता कुछ चलता न था
मैं जब तक आई बाहर

ख़ाली हो चुके थे मेरे हाथ
न कहीं पट्टी

न मरहम
सिर्फ़ एक मंत्र मेरे पास था

वही अब तक याद था
किसी ने मुझे

वह दिया न था
मैंने ख़ुद ही

खोज निकाला था उसे
एक दिन

अपने कंठ की गूँ-गूँ में से
चाहिए थी बस मुझे

तिनका भर कुशा
जुड़े हुए मेरे हाथ

ध्यान
प्रार्थना

सर्वम शांति के लिए
मंत्र का अर्थ मगर अब

वही न था
मंत्र किसी काम का न था

मैं जब तक आई बाहर
एकांत से अपने

बदल चुका था मर्म
भाषा का

स्रोत :
पुस्तक : मैं जब तकआई बाहर
रचनाकार : गगन गिल
प्रकाशन : वाणी प्रकाशन

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