काव्य 25 || 48 दिवसीय भक्तामर शिविर ( 26 August 2024 ) आष्टा || मुनि श्री विनंदसागर जी

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काव्य 25

बुद्धस्त्व-मेव विबुधार्चित बुद्धि बोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय शंकरत्वात् ।
धातासि धीर ! शिवमार्ग विधे-विधानाद्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ।।25।।

फल :- दृष्टि-दोष निरोधक

अन्वयार्थ :- विबुध = देवताओं के द्वारा, अर्चित = पूजित, बुद्धि-बोधात् = केवल ज्ञानी होने से, त्वम् एव = आप ही, बुद्धः = बुद्ध हो, भुवनत्रय = तीनों भुवनों में, शंकरत्वात् = सुख शांति करने से, त्वम् = तुम ही, शंकरः = शंकर, असि = हो, धीर = हे धीर वीर !, शिवमार्ग = मोक्ष मार्ग की, विधेःविधानात् = विधि के विधान करने से, त्वं धातासि = तुम ही विधाता/ब्रह्मा, असि = हो इस प्रकार, भगवन् = हे भगवन् !, व्यक्तं = स्पष्ट रूप से, त्वम् एवं = आप ही, पुरुषोत्तमः = पुरुषोत्तम/विष्णु, असि = हो।

भावार्थ :- हे भगवान् ! केवल ज्ञान होने से आप ही बुद्ध हो। सुख शांति देने वाले होने से आप ही शंकर हो। सत्य पथ देने के कारण आप ही ब्रह्मा हो। निर्मोह व परम अहिंसक होने से आप ही पुरुषोत्तम हो ।

जाप :- ॐ ह्रीं अईं णमो उग्ग तवाणं।
(ऐसे ऋषि जो उग्र तपश्चरण करते हैं, उन्हें मेरा प्रणाम होवे)
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