श्री कृष्ण द्वारा शिवरात्रि पर महादेव की आराधना | Maha Shivratri Special Katha | महाशिवरात्रि विशेष

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श्रीकृष्ण देवलोक से अपने साथ पारिजात पुष्प लेकर आये थे, जिसे उन्होंने अपनी पटरानी रुक्मिणी को भेंट कर दिया। पारिजात पुष्प की विशेषता यह है कि इसे धारण करने वाले को चिरयौवन की प्राप्ति होती है। इस बात का पता चलने पर सत्यभामा को बहुत ईर्ष्या होती है। सत्यभामा तय करती हैं कि द्वारिकाधीश ने तो रुक्मिणी दीदी को केवल एक पुष्प दिया है। मैं उनसे पारिजात का पूरा वृक्ष लेकर रहूँगी। इसके बाद सत्यभामा अपने समस्त श्रँगार का त्याग करती हैं और रुष्ट होने के प्रदर्शन करती हैं। श्रीकृष्ण उन्हें मनाने आते हैं तो वह उनसे पारिजात का वृक्ष लाकर देने की माँग करती हैं। श्रीकृष्ण इसे दुष्कर कार्य बताते हुए कहते हैं कि पारिजात का वृक्ष तो देवलोक के नन्दन वन में है। सत्यभामा की नाराजगी और बढती है। वह कहती हैं कि आप रुक्मिणी दीदी से अधिक प्रेम करते हैं। आपने पारिजात पुष्प उन्हें दिया, मुझे नहीं। श्रीकृष्ण सत्यभामा को समझाते हुए कहते हैं कि तुमने देवलोक जाकर पारिजात के दर्शन किये थे। परन्तु रुक्मिणी ने पारिजात को नहीं देखा था इसलिये जब देवराज इन्द्र ने मुझे वह फूल दिया तो मैंने इसे रुक्मिणी को दे दिया। इसमें भेदभाव की बात कहाँ है। किन्तु अब सत्यभामा अपने हठ पर हैं। वह कहती हैं कि यदि आप मुझसे सच्चा प्रेम करते हैं तो अब मुझे एक पुष्प नहीं, पूरा पारिजात वृक्ष लाकर दीजिये, मैंने उसकी छाया में पुण्यक व्रत करने का संकल्प किया है। अन्यथा मैं तपस्विनी बनकर वन चली जाऊँगी। सत्यभामा के हठ को देखकर श्रीकृष्ण उन्हें पारिजात वृक्ष लाने का आश्वासन देते हैं। सत्यभामा की प्रसन्नता चरम पर पहुँचती है। श्रीकृष्ण नारद मुनि के माध्यम से इन्द्र तक अपना सन्देश पहुँचाते हैं। इन्द्र नारद जी से रूखे स्वर में कहते हैं कि श्रीकृष्ण क्या ये नहीं जानते हैं कि वे मनुष्य योनि में हैं और इस समय मृत्युलोक वास कर रहे हैं। यदि देवलोक की निधि मृत्युलोक में चली गयीं तो पृथ्वी और देवलोक के बीच अन्तर क्या रह जायेगा। द्वारिकाधीश चाहें तो स्वर्ग के तमाम आभूषण और वस्त्रों का उपभोग कर सकते हैं किन्तु पारिजात स्वर्ग की शोभा है, मैं इसे देने से स्पष्ट इनकार करता हूँ। नारद धरती पर वापस आकर श्रीकृष्ण को इन्द्र का सन्देश देते हैं। श्रीकृष्ण इन्द्र से युद्ध करके पारिजात प्राप्त करने की घोषणा कर देते हैं। दोनों के बीच संग्राम छिड़ जाता है। लड़ते-लड़ते पूरा दिन निकल जाता है। इन्द्र श्रीकृष्ण से कहते हैं कि पृथ्वी पर संध्या वन्दन का समय हो गया है और युद्धनीति के अनुसार अब ये आपके विश्राम का समय है। कल प्रातः फिर युद्ध शुरू होगा। उस दिन शिवरात्रि होने के कारण श्रीकृष्ण पारियात्र पर्वत जाकर शिवजी की अराधना करते हैं। शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट होते हैं और कहते हैं कि आपने जिस पर्वत पर मेरी आराधना की है, अब वह स्थान बिल्वेश्वर के नाम से पुकारा जायेगा। भगवान शंकर कहते हैं कि मैं देखकर रहा हूँ कि इन्द्र से युद्ध करते हुए आपने अभी तक उसपर एक भी घातक प्रहार नहीं किया है। तब श्रीकृष्ण उन्हें बताते हैं कि मैं इन्द्र का पराभाव नहीं चाहता। बस केवल उनके अहंकार का नाश करना चाहता हूँ। मैं पहले भी गोवर्धन पर्वत पर उसके अहंकार का नाश कर चुका हूँ। उसने आपको भी पारिजात देने से इनकार कर दिया था। वह स्वयं को देवलोक में सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्थापित कर रहा है। मैं उसके इसी अहंकार को तोड़ने के लिये पारिजात वृक्ष धरती पर ले जाना चाहता हूँ। इसके लिये आप मुझे आशीर्वाद दीजिये। शिवजी उन्हें वरदान देते हैं कि कल आप पारिजात के साथ ही पृथ्वी लोक जायेंगे। अगले दिन पुनः युद्ध प्रारम्भ होता है। श्रीकृष्ण का सुदर्शन इन्द्र का शीश काटने को बढ़ता है। तभी देवमाता अदिति इन्द्र और सुदर्शन के बीच खड़ी हो जाती हैं। श्रीकृष्ण सुदर्शन को रुकने का आदेश देते हैं और देवमाता को प्रणाम करते हैं। देवमाता अदिति श्रीकृष्ण से कहती हैं कि तुम्हारे वामन अवतार के लिये मैंने ही तुम्हें जन्म दिया था। इस तरह इन्द्र तुम्हारा भाई है। तुम यह युद्ध रोक दो। श्रीकृष्ण सुदर्शन को वापस अपनी उँगली पर बुला लेते हैं। देवमाता श्रीकृष्ण से कहती हैं कि मैं तुम्हें पारिजात प्रदान करती हूँ किन्तु इसका विधान यह होगा कि जब सत्यभामा का पुण्यक व्रत पूरा होगा, यह वापस देवलोक में आ जायेगा।

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