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रेलवे स्टेशन पर चुड़ैल का ढाबा
"स्टेशन नंबर 13", एक ऐसा रेलवे स्टेशन जो किसी भी आम नक्शे में नहीं दिखता। कोई नहीं जानता कि ट्रेन वहाँ क्यों रुकती है, और अगर कोई गलती से वहाँ उतर जाए, तो उसकी किस्मत खुदा ही जाने।
इस स्टेशन पर है एक ढाबा, नाम है “चुड़ैल का ढाबा”। नाम सुनते ही रूह काँप जाती है, पर भूख कुछ ऐसी चीज़ होती है जो डर को भी हरा देती है। ये ढाबा चलता है आधी रात को, जब आखिरी ट्रेन सीटी बजाकर चली जाती है और स्टेशन पर अजीब-सी खामोशी पसर जाती है।
ढाबे की मालकिन – "माया"। उम्र का कोई अंदाज़ा नहीं। बाल घने, आँखों में अजीब चमक, और एक मुस्कान जो दिल में डर भी भरती है और रहस्य भी। माया हर किसी को जानती है – उसका नाम, उसका भूतकाल, यहाँ तक कि उसका आने वाला कल भी।
हर रात कोई ना कोई मुसाफिर गलती से या मजबूरी में उस स्टेशन पर उतरता है। और फिर वो आता है इस ढाबे पर – भूख से मजबूर, लेकिन खाने की हर बाइट में छुपे रहस्य से बेखबर।
ढाबे का खाना जादुई है।
कोई पहली बाइट लेता है, और अपने सबसे बड़े राज उगलने लगता है।
कोई दूसरी बाइट में अपने खोए हुए को फिर से देख लेता है।
तीसरी बाइट? वो तो खतरनाक होती है। जो तीसरी बाइट खा ले, वो वापस नहीं जाता। या तो वो ढाबे में रह जाता है, या फिर उस दुनिया में चला जाता है जहाँ से कोई नहीं लौटता।
कहानी की शुरुआत
विवेक, एक संघर्षरत लेखक, जिसने अपनी नौकरी छोड़ी ताकि वो एक किताब लिख सके – "भारत के सबसे अजीब रेलवे स्टेशन"। उसे "स्टेशन नंबर 13" की कहानी मिलती है एक बूढ़े आदमी से, जो कभी वहाँ गया था लेकिन लौटते वक्त उसका चेहरा ही बदल चुका था।
विवेक तय करता है कि वो खुद जाएगा उस स्टेशन पर। जैसे ही वो ट्रेन में चढ़ता है, उसे चेतावनियाँ मिलने लगती हैं – "उस स्टेशन का टिकट नहीं कटता", "वहाँ की घड़ी उलटी चलती है", "माया तुम्हें पहचान लेगी"।
वो सबको नजरअंदाज करता है।
ट्रेन आधी रात को रुकती है एक वीरान स्टेशन पर। प्लेटफॉर्म नंबर नहीं, बस एक बोर्ड – “स्टेशन नंबर 13”।
विवेक उतरता है, और वहाँ होता है सिर्फ एक ही दुकान – एक ढाबा। लिखा है:
"चुड़ैल का ढाबा – स्वाद जो आत्मा को छू जाए"।
वो ढाबे पर जाता है, और माया उसकी प्रतीक्षा कर रही होती है।
ढाबे में क्या होता है?
माया उसे खास "यादों की थाली" परोसती है।
पहली बाइट – उसे उसके बचपन की वो याद दिलाती है जहाँ उसने अपने छोटे भाई को खो दिया था।
दूसरी बाइट – उसकी माँ की अंतिम इच्छा सुनाई देती है, जो उसने कभी पूरी नहीं की।
तीसरी बाइट… लेकिन विवेक रुक जाता है। वो समझ चुका होता है कि हर बाइट के साथ वो खुद को खो रहा है।
माया मुस्कुराती है – “तीसरी बाइट मत खाना, वरना फिर यहीं रह जाओगे – मेरी तरह।”
माया की सच्चाई
माया कभी एक आम लड़की थी, जो इसी स्टेशन पर अपने प्रेमी का इंतज़ार करती रही। ट्रेन कभी नहीं आई। वो भूख से तड़पती रही, और मर गई। लेकिन उसकी आत्मा भूखी रह गई – भूख प्यार की नहीं, सच्चाइयों की।
अब वो ढाबा चलाती है – हर राही की सच्चाई जानने के लिए, हर आत्मा से कुछ सुनने के लिए।
विवेक का निर्णय
विवेक की जिज्ञासा उसे तीसरी बाइट लेने के करीब ले आती है, लेकिन तभी एक बूढ़ा आदमी आकर उसे रोकता है – वही, जिससे उसने कहानी सुनी थी। वह भी एक समय में माया के ढाबे में तीसरी बाइट खा चुका था, लेकिन वो किसी तरह लौट आया, अधूरी आत्मा बनकर।
विवेक समझ जाता है – उसकी कहानी यहीं खत्म हो सकती है, या वो इसे पूरी दुनिया को बता सकता है।
वो उठता है, माया से माफी मांगता है, और स्टेशन छोड़ देता है।
अंत
जब वो लौटकर आता है, उसकी किताब की शुरुआत होती है – “रेलवे स्टेशन पर चुड़ैल का ढाबा”।
पर कोई भी पाठक आखिरी पेज तक नहीं पहुँचता…
क्योंकि जो पहुँचता है, उसे स्टेशन नंबर 13 का टिकट मिल जाता है...
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