भारत के इतिहास में भी कलचुरी राजवंश का महत्वपूर्ण स्थान है।
सन् 550 ई. से लेकर 1741 तक लगभग 1200 वर्षों की अवधि में कलचुरी नरेश भारत के किसी-न-किसी प्रदेश पर राज्य करते रहे।
1000 में छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश की स्थापना हुई।
1000 मे कोकल्लदेव द्वितीय के 18 पुत्रों में से एक छोटे पुत्र कलिंगराज ने कोसल पर विजय प्राप्त कर तुम्मान को अपनी राजधानी बनाया।
छत्तीसगढ़ कलचुरी का शासन तुम्मान से प्रारंभ होता है।
छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक समय तक शासन किया।
डॉ. मिराशी के अनुसार कलचुरी नरेश अपने को सहस्त्रर्जुन कहे जाने में गौरव का अनुभव करते थे। प्राचीन समय में कलचुरीयों को ‘कटच्चुरि’, प्रतिद्वंदी चालुक्यों द्वारा ‘कलत्सूरि’ तथा शिलालेख में ‘कलचुरी’ या ‘कालाचरि’ कहा गया है।
इस वंश की स्थापना को ही मध्यकालीन छत्तीसगढ़ का इतिहास का माना जाता है।
कलचुरी और हैहयवंशी एक ही थे। विद्वानों ने इन्हें चंद्रवंशी क्षत्रिय माना है।
ताम्रपत्र लेख का आरंभ ‘ऊ नमः शिवाय’ से होता था।
कालंजर, प्रयाग त्रिपुरी, काशी, तुम्माण, रतनपुर खल्लारी, रायपुर में कलचुरी नरेशों ने अपनी राजधानी स्थापित की।
रतनपुर में शासन करने वाले कलचुरी का मूल स्थान माहिष्मती था।
राजा माहिष्मान ने नर्मदा नदी के किनारे माहिष्मति नगर बसाया था। उस समय माहिष्मती हैहयवंशियों की राजधानी थी, जो बाद में त्रिपुरी कहलाया ।
कलचुरीवंश का मूल पुरुष कृष्णराज था, जिसने इस वंश की स्थापना की और 500 से 575 ई. तक राज्य किया।
कोकल्ल प्रथम के 18 पुत्रों में सबसे बड़ा पुत्र शंकरगढ़ द्वित्तीय (मुग्धतुंग) था, जो 900-950 में त्रिपुरी की गद्दी पर बैठा।
बिलहरी ताम्रपत्र के अनुसार, मुग्धतुंग ने लगभग 900ई में कोसल के सोमवंशी राजाओं को पराजित कर उससे पाली क्षेत्र (कोरबा) को जीतकर अधिकार कर लिया था।
मुग्धतुंग ने इस क्षेत्र में स्वयं शासन नहीं किया, बल्कि अपने छोटे भाई को अधिपति बनाकर इस क्षेत्र का शासक नियुक्त किया। उसके भाई ने तुम्माण को राजधानी बनाकर शासन किया।
950 के लगभग स्वर्णपुर (सोनपुर, उड़ीसा) के सोमवंशी राजा ने कलचुरियों की इस शाखा को तुम्माण से मार भगाया।
छत्तीसगढ़ कलचुरी का शासन तुम्माण से प्रारंभ होता है।
छत्तीसगढ़ में शासन के समय कलचुरी वंश की दो शाखाओं में विभक्त था रतनपुर एवं रायपुर जिन्हे इस प्रकार समझा जा सकता है।
रतनपुर शाखा के कलचुरी शासक
कलिंगराज (1000 से 1020 ई.)
कमलराज (1020 से 1045 ई.)
रत्नदेव प्रथम (1045 से 1065 ई.)
पृथ्वीदेव प्रथम (1065 से 1095 ई.)
जाजल्यदेव प्रथम (1095 से 1120 ई.)
रत्नदेव द्वितीय (1120 से 1135 ई.)
पृथ्वीदेव द्वितीय (1135 से 1165 ई.)
जाजल्यदेव द्वितीय (1165 से 1168 ई.)
जगतदेव (1168 से 1178 ई.)
रत्नदेव तृतीय (1178 से 1198 ई.)
प्रतापमल्ल (1198 से 1222 ई.)
बाहरेन्द्रसाय (1480 से 1525 ई.)
कल्याणसाय (1544 से 1581 ई.)
लक्ष्मणसाय (1000 से 1020 ई.)
तख्तसिंह
राजसिंह (1689 से 1712 ई.)
सरदार सिंह (1712 से 1732 ई.)
रघुनाथ सिंह (1732 से 1745 ई.)
मोहन सिंह (1745 से 1757 ई.)
छत्तीसगढ़ में गढ़ व्यवस्था कल्चुरियों की दो शाखाओं में विभाजित थी, जिसमें छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी के उत्तरी भाग पर रतनपुर के राजा के अधिकार क्षेत्र में आने वाले 18 गढ़ तथा शिवनाथ नदी के दक्षिणी भाग पर रायगढ़ के राजा के अधिकार क्षेत्र में आने वाले 18 गढ़ आते थे। दोनों भागों को मिलाकर गढ़ों की संख्या 36 होती थी। इसलिए यह अंचल छत्तीसगढ़ कहलाया। इन गढ़ों के नाम निम्नलिखित हैं.
शिवनाथ नदी के उत्तर में स्थित गढ़
बिलासपुर (4)
1. रतनपुर
2. विजयपुर
3. ओखर/ओखरगढ़
4. केन्दागढ़
कोरबा (4)
5. कोसगई (छुरा)
6 . लाफागढ़
7 . मातिन
8 . उपरोड़ा
जांजगीर-चाम्पा (4)
9 . मदनपुर (चाम्पा)
10 . खरौद
11 . कोटगढ़
12 . सोण्ठी
बलौदाबाजार (1)
13 . सेमरिया
बेमेतरा (2)
14 . मारो
15 . नवागढ़
अनुपपुर, मध्य प्रदेश (2)
16 . करकट्टी
17 . कण्डरी
गौरेला-पेण्ड्रा – मरवाही (1)
18. पण्डरभांटा
शिवनाथ नदी के दक्षिण में स्थित गढ़
बलौदाबाजार (2)
1. सिमगा
2. लवन
बेमेतरा (2)
3 . सारथागढ़ / सारदागढ़
4 . सिरसा
दुर्ग (2)
5 . पाटन
6 . दुर्ग
बालोद (1)
7 . अकलवाड़ा/एकलवार
रायपुर (2)
8 . रामपुर
9 . अमोरा / अमीरा
गरियाबन्द (2)
10 . फिंगेश्वर/फिगेसर
11 . राजिम
महासमुन्द (4)
12 . खल्लारी
13 . सिरपुर
14 . सुअरमाल
15 . मोंहदी
धमतरी (1)
16 . टेगनागढ़
राजनान्दगाँव (1)
17 . सिंगारपुर
अज्ञात जिले (1)
18 . सिंगारगढ़/ सिंघनगढ़
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