114. सामाजिक प्रक्रियाओं के प्रकार Kinds of Social Processes

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दो मुख्य भाग-1.सहयोगी,संगठनात्मक या एकीकरण करने वाली प्रक्रियाएँ-सहयोग, व्यवस्थापन, समाजीकरण तथा सात्मीकरण प्रमुख हैं।2.असहयोगी,विघटनात्मक या पृथक्करण करने वाली प्रक्रियाएँ-प्रतिस्पर्द्धा, प्रतिकूलन तथा संघर्ष है।1.सहयोग-यह वह प्रक्रिया है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी समान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए मिल-जुलकर कार्य करते हैं। सहयोग दो प्रकार का होता है- प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष। एक टीम के खिलाड़ियों द्वारा साथ-साथ खेलना प्रत्यक्ष सहयोग और श्रम-विभाजन भिन्न-भिन्न कार्य करने के बाद भी एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने में लगे रहते हैं, अप्रत्यक्ष सहयोग हैं। सहयोग में स्वेच्छा की भावना होती है। किसी भी व्यक्ति को दूसरे को सहयोग देने अथवा न देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। सहयोग एक सार्वभौमिक विशेषता है। सामाजिक एकीकरण को बढ़ाने और व्यक्ति का समाजीकरण करने में भी सहयोग को भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है।2.व्यवस्थापन-यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कुछ व्यक्ति अथवा समूह अस्थायी रूप से एक-दूसरे से समझौता करके अपने पारस्परिक विरोध अथवा संघर्ष को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। व्यवस्थापन का उद्देश्य समाज में असन्तुलन और विघटन पैदा करने वाली दशाओं के प्रभाव को रोकना है। समझौता, मध्यस्थता, विचारों में परिवर्तन, सहनशीलता तथा पंच निर्णय आदि व्यवस्थापन के प्रमुख तरीके हैं। प्रत्येक समाज में व्यवस्थापन की प्रक्रिया हमेशा बदलती रहती है। यह सच है कि व्यवस्थापन को प्रकृति अधिक स्थायी नहीं होती लेकिन सामाजिक संतुलन को बनाये रखने और एकीकरण में वृद्धि करने में इस प्रक्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यवस्थापन की प्रक्रिया को समायोजन की प्रक्रिया भी कहा जाता है।3.समाजीकरण-जॉन्सन ने लिखा है, "समाजीकरण का तात्पर्य सामाजिक सीख को उस पक्रिया से है जो व्यक्ति को समाज में एक विशेष भूमिका निभाने के योग्य बनाती है। जन्म के समय बच्चा केवल एक जैविकीय प्राणी होता है। उसके पास न कोई भाषा होती है, न वह चल-फिर सकता है और न ही वह यह जानता है कि अपने और दूसरों के प्रति उसे किस तरह व्यवहार करना चाहिए। धीरे-धीरे सामाजिक सीख के द्वारा ही वह इन सभी विशेषताओं को सीखता है। सीख की इस प्रक्रिया को समाजीकरण कहते हैं। इसी प्रक्रिया के द्वारा वह विभिन्न समूहों का सदस्य बनता है और अपने समाज के नियमों तथा मूल्यों के अनुसार व्यवहार करना सीखता है। इसी प्रक्रिया के द्वारा किसी समाज की सांस्कृतिक विशेषताएँ आगामी पीढ़ियों को हस्तान्तरित होती रहती है। 4.सात्मीकरण-एक सहयोगी प्रक्रिया है। विभिन्न समाजों में एक-दूसरे से भिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विशेषताओं वाले लोग साथ-साथ रहते हैं। ऐसे सभी व्यक्ति और समूह व्यवस्थापन के द्वारा विभिन्न प्रकार के मतभेदों और संघर्षों को दूर करने का प्रयत्न करते रहते हैं। धीरे-धीरे विभिन्न समूह एक-दूसरे की विशेषताओं को अपनाकर उन्हें अपने जीवन की स्थायी विशेषता बना लेते हैं। जिस प्रक्रिया के द्वारा विभिन्न संस्कृति वाले समूहों द्वारा एक-दूसरे की विशेषताओं को अपनाया जाता है, उसी को हम सात्मीकरण अथवा आत्ममात् की प्रक्रिया कहते हैं। इस दृष्टिकोण से सात्मीकरण एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है जो बहुत धीरे-धीरे विकसित होती है। जिन समाजों में विभिन्न सांस्कृतिक विशेषताओं वाले समूहों में एक-दूसरे के प्रति जितनी अधिक सहनशीलता होती है, उनमें सात्मीकरण की प्रक्रिया का उतना ही अधिक प्रभाव देखने को मिलता है।5.प्रतिस्पर्धा-प्रतिस्पर्धा एक असहयोगी अथवा व्यक्तियों और समूहों को एक-दूसरे से पृथक् करने वाली प्रक्रिया है। प्रतिस्पर्धा का मुख्य कारण सभी व्यक्तियों द्वारा सीमित सुविधाओं के बाद भी अपनी अधिक से अधिक आवश्यकताओं को पूरा करने की इच्छा है। जब दो या दो से अधिक व्यक्ति कुछ सीमित वस्तुओं या अधिकारों को प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे से आगे निकल जाने का प्रयत्न करते हैं, तब प्रयत्नों की इस प्रक्रिया को प्रतिस्पर्द्धा कहते हैं। हमारे जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं है जिसमें प्रतिस्पर्द्धा न पायी जाती हो। प्रतिस्पर्धा में कुछ नियमों और मूल्यों का समावेश होता है। प्रतिस्पर्धा अवैयक्तिक होती है। प्रतिस्पर्धा के कारण ही हमारा सामाजिक जीवन इतना प्रगतिशील बन सका है।6.प्रतिकूलन-फेयरचाइल्ड ने 'समाजशास्त्र के शब्दकोष' में प्रतिकूलन को एक ऐसी असहगामी सामाजिक प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट किया है जो प्रतिस्पर्धा और संघर्ष के बीच की दशा को स्पष्ट करती है। प्रतिकूलन की प्रक्रिया मुख्य रूप से दो रूपों में स्पष्ट होती है- प्रथम - अनिश्चय की दशा द्वितीय अप्रत्यक्ष विरोध की दशा। सामाजिक प्रतिकूलन का रूप अप्रत्यक्ष विरोध के रूप में भी देखने को मिलता है। जब हम किसी व्यक्ति, समूह, संस्कृति विशेष या विश्वास को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं, तब उसके प्रति हमारे मन में अप्रत्यक्ष विरोध की भावना पैदा हो जाती है।हम उस व्यक्ति, समूह अथवा विशेषता को संदेह से देखने लगते हैं। इस दशा में न तो हम किसी से प्रतिस्पर्धा करते हैं और न ही अपने व्यवहारों के द्वारा उससे संघर्ष करते हैं।7.संघर्ष-संघर्ष असहयोगी प्रक्रिया का एक चरम रूप है। यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम दवाब, बल-प्रयोग अथवा उत्पीड़न के द्वारा दूसरे व्यक्तियों को दबाकर अपने हितों को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रक्रिया में कुछ व्यक्ति अथवा समूह एक-दूसरे का विरोध ही नहीं करते बल्कि घृणा, क्रूरता और हिंसा के द्वारा भी दूसरों के उद्देश्यों को हानि पहुंचाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। जब कुछ व्यक्तियों अथवा समूहों के बीच पायी जाने वाली प्रतिस्पर्द्धा सामाजिक नियमों के बाहर निकल जाती है, तब इस दशा को हम संघर्ष की दशा कहते हैं। संघर्ष प्रत्यक्ष भी हो सकता है और अप्रत्यक्ष भी।

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