वत्स गोत्र की उतपत्ति,

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वत्स गोत्र का इतिहास
अक्षमाला भी गर्भवती थी| उसे भी एक पुत्र हुआ| सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा “वत्स”| अक्षमाला ने अपना दूध पिलाकर दोनों बालकों का पुत्रवत पालन पोषण किया| एक ही माता के दुग्धपान से दोनों में सहोदर भ्रातृवत सम्बन्ध हो गया|
अपनी माता सरस्वती देवी के वरदान से सारस्वत सभी विद्याओं में निष्णात हो गए और इतनी क्षमता प्राप्त कर ली कि अपना पूरा ज्ञान, कौशल और सारी विद्याएँ अपने भाई वत्स के अंदर अंतर्निहित कर दी| परिणामस्वरूप वत्स भी सरस्वती देवी प्रदत्त सारी विद्याओं में निष्णात हो गए|
वत्स में सर्व विद्या अर्पण कर च्यावानाश्रम के पास ‘प्रीतिकूट’ नामक ग्राम में उन्हें बसाकर सारस्वत भी अपने पिता का अनुशरण कर च्यवन कानन में तपस्या करने चले गए|
युगोपरांत कलियुग आने पर वत्स वंश संभूत ऋषियों ने ‘वात्स्यायन’ उपाधि भी रखी|
वात्स्यायन ऋषि रचित ‘कामसूत्र’ जग प्रसिद्ध है|
वत्स वंश में बड़े-बड़े धीर-विज्ञ गृहमुनि जन्मे जो असाधारण विद्वता से पूर्ण थे|
ये किसी और ब्राह्मण की पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं करते थे (विवर्जितः जनपंक्त्यः)|
अपना भोजन स्वयं पकाते थे (स्वयंपाकी)|
दान नहीं लेते थे, याचना नहीं करते थे (विधूताध्येषनाः)|
भृगु ऋषि गोत्रोत्पन्न वत्स ऋषि को अपने गोत्र नाम से प्रजा वर्धन का अधिकार प्राप्त हुआ| इनके मूल ऋषि भृगु रहे|
इनके पांच प्रवर – भार्गव, च्यवन, आप्रवान, और्व और जमदग्नि हुए| मूल ऋषि होने के कारण भृगु ही इनके गण हुए|
वत्स-गाेत्रः।
वेद - सामवेद।
उपवेद - गन्धर्व।
शाखा - काैथुमी।
सूत्र - गाेभिल।
पाद - वाम।
शिखा - वाम।
उपास्य देव - श्रीविष्णु।
प्रवर - पञ्च।
(ब्राह्मण गोत्रावली पुस्तक में लिखा है।
कुलदेवी ;--आप वत्स प्रथम मे आतें हैं तो- श्री तारिणी देवी
और यदि वत्स द्वितीय में श्री सिद्धा देवी।
कुल देवता अनादि अनंत शिव हैं (

ऐतरेय ब्राह्मण 8128 और अष्टाध्यायी 4-1-111,177 में उल्लेखित सूत्रांकों से होती है। अथापत्याधिकार: (तद्धित प्रकरण) में "वत्सा:"1006 सूत्र में वत्स गोत्र वाले जन भाषित हैं। वत्सांसाभ्यां कामबले 5.2/1905 के अनुसार काम और बल अर्थ में वत्स गोत्रीय जन की विद्यमानता है। इसके साथ ही पाणिनि ने लोहित नामों का संकेत किया है। अष्टाध्यायी में लोहितादिडाज्म्य: 3/3/13 सूत्रांक 2668, लोहितान्मणौ 5/4/30 सूत्रांक 2098, लोहिताल्लिन्ग्बाधानं वा इत्यादि सूत्रों में लौह संघ का निर्देश मिलता है।
इनके वंशज(ब्राह्मण) शोनभद्र,(सोनभदरिया), बछ्गोतिया, बगौछिया, दोनवार, जलेवार, शमसेरिया, हथौरिया, गाणमिश्र, गगटिकैत और दनिसवार आदि भूमिहार ब्राह्मण हुए
अन्य जातियों में वत्स गोत्र

हालांकि ब्राह्मणों (भूमिहार ब्राह्मण सम्मिलित) के अलावा अन्य जातियों में गोत्र प्रथा अनिवार्य नहीं है फिर भी कतिपय प्रमुख जातियों में गोत्र परंपरा देखी जाती है इनके गोत्र, 'गोत्र-ऋषि उत्पन्न' नहीं वल्कि गोत्र-आश्रम आधारित हैं अर्थात जिस ऋषि आश्रम में वे संलग्न रहे उन्होंने उसी ऋषि-गोत्र को अपना लिया|
इसी सिद्धांत पर क्षत्रिय परिवारों में वत्स गोत्र पाया जाता है| यही सिद्धांत अन्य जातियों में भी प्रचलित है| वत्स गोत्रीय समुदायों की उपाधियाँ

• बालिगा , भागवत. भैरव. भट्ट. दाबोलकर, गांगल,गार्गेकर, घाग्रेकर. घाटे, गोरे,, गोवित्रिकर, हरे, हीरे, होले, जोशी, काकेत्कर, काले, मल्शे, मल्ल्या महालक्ष्मी, नागेश, सखदेव, शिनॉय, सोहोनी, सोवानी, सुग्वेलकर, गादे, रामनाथ, शंथेरी, कामाक्षी ; kamath, payasi , Assam rajya me v vatsa gotra brahman he dahal paribar h, गोत्र वत्स व जाती प्रभाकर है।
नेपाल में दाहाल,राणा,लम्साल,रुपाखेति,कुंवर,खराल भी वत्स गोत्रिय है ।
Korpal got of Punjabi Saraswat Brahmin also refer themselves as Vats, Vatsa or even Bachchas or Vachchas.
टायटल राय(roy) है,हमलोग भी वत्स गौत्रिय बगौछिया भुमिहार है

वत्स या वंश या बत्स या बंश प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। यह आधुनिक इलाहाबाद और मिर्जापुर के आसपास केन्द्रित था। ... इसकी राजधानी कौशांबी (वर्तमान कोसम) इलाहाबाद से 38 मील दक्षिणपश्चिम यमुना पर स्थित थी। महाभारत के युद्ध में वत्स लोग पांडवों के पक्ष से लड़े थे

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