ब्राह्मणों को कैसे मिला वत्स और वात्स्यायन गोत्र || introduction of vats and vatsyayan surname.

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वत्स गोत्र या वंश के प्रवर्तक भृगुवंशी वत्स ऋषि थे । भारत के प्राचीनकालीन 16 जनपदों में से एक जनपद का नाम वत्स था । वत्स साम्राज्य गंगा - यमुना के संगम पर इलाहाबाद से दक्षिण - पश्चिम दिशा में बसा था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी । पाली भाषा में वत्स को ' वंश ' और तत्सामयिक अर्धमगधी भाषा में ' वच्छ ' कहा जाता पौराणिक पृष्भूमि “ भ्रिगुं , पुलत्स्यं , पुलहं , क्रतुअंगिरिस तथा मरीचिं , दक्षमत्रिंच , वशिष्ठं चैव मानसान् ” ( विष्णु पुराण ) 5/7 ) भृिगु , पुलत्स्य , पुलह , क्रतु , अंगिरा , मरीचि , दक्ष , अत्रि तथा वशिष्ठ इन नौ मानस पुत्रों को ब्रह्मा ने प्रजा उत्पत्ति का कार्य भार सौंपा | कालान्तर में इनकी संख्या बढ़कर 26 तक हो गई और इसके बाद इनकी संख्या 56 हो गई | इन्हीं ऋषियों के नाम से गोत्र का प्रचलन हुआ और इनके वंशज अपने गोत्र ऋषि से संबद्ध हो गए | - हरेक गोत्र में प्रवर , गण और उनके वंशज ( ब्राह्मण ) हुए | कुछ गोत्रों में सुयोग्य गोत्रानुयायी ऋषियों को भी गोत्र वर्धन का अधिकार दिया गया | - नौ मानस पुत्रों में सर्वश्रेष्ठ भृगु ऋषि गोत्रोत्पन्न वत्स ऋषि को अपने गोत्र नाम से प्रजा वर्धन का अधिकार प्राप्त हुआ | इनके मूल ऋषि भृगु रहे | इनके पांच प्रवर - भार्गव , च्यवन , आप्रवान , और्व और जमदग्नि हुए | मूल ऋषि होने के कारण भृगु ही इनके गण हुए इनके वंशज ( ब्राह्मण ) शोनभद्र , ( सोनभदरया ) , बछगोतिया , बगौछिया , दोनवार , जलेवार , शमसेरिया , हथौरिया , गाणमिश्र , गगटिकैत और दनिसवार आदि भूमिहार ब्राह्मण हुए ।
लिखित साक्ष्य
छठी शदी ईशा पूर्व महाकवि वाणभट्ट रचित ' हर्षचरितम् ' के प्रारंभ में महाकवि ने वत्स गोत्र का पौराणिक इतिहास साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया है । महाकवि वाणभट्ट के बारे में क्या कहना “ वाणोच्छिष्टम् जगत सर्वम् ” | ' वाण का छोड़ा हुआ जूठन ही समस्त जगत का साहित्य है ' | इस प्रचलित उक्ति से ही वाणभट्ट की विद्वता का पता चल जाता है । वाणभट्ट स्वयं वत्स गोत्रीय थे | - वाणभट्ट के अनुसार एक बार स्वर्ग की देव सभा में दुर्वासा ऋषि उपमन्यु ऋषि के साथ विवाद करते - करते क्रोधवश सामवेद गान करते हुए विस्वर गान ( Out of Tune ) गाने लगे | इसपर सरस्वती देवी हँस पड़ी । फिर क्या था ; दुर्वासा ऋषि उनपर बरस पड़े और शाप दे डाला ' दुर्बुद्धे ! दुर्विद्ग्धे ! पापिनि ! जा , अपनी करनी का फल भोग , मर्त्यलोक में पतित होकर बस | स्वर्ग में तेरा स्थान नहीं इतना सुनकर सरस्वती देवी विलाप करने लगी । इसपर पितामह ब्रह्मा ने दुर्वासा की बड़ी भर्त्सना की | कहा अनंतर अपनी मानसपुत्री सरस्वती पर द्रवीभूत होकर उससे ' जा बेटी ' ! मर्त्यलोक में धैर्य धर कर जा , तेरी सखी सावित्री भी तेरे साथ वहाँ जायेगी | पुत्रमुख दर्शन तक ही तेरा यह शाप रहेगा , तदन्तर तू यहाँ वापस लौट आयेगी | शापवश सरस्वती मर्त्यलोक में हिरण्यवाह नदी के पश्चिमी किनारे पर स्वर्ग से जा उतरी | हिरण्यवाह को शोण नद भी कहते है जो आज कल सोन नदी के नाम से विख्यात हैं | वहाँ की रमणीयता से मुग्ध हो वहीं पर्णकुटी बनाकर सावित्री के साथ रहने लगी | इस प्रकार कुछ वर्ष व्यतीत हुए |
एक दिन कोलाहल सुन दोनों ने कुटिया के बाहर आकर देखा | हजार सैनिकों के साथ एक अश्वारोही युवक उधर से गुजर रहा था | सरस्वती के सौंदर्य पर वह राजकुमार मुग्ध हो गया और यही हालत सरस्वती की भी थी । वह राजकुमार और कोई नहीं , महर्षि च्यवन और महाराज शर्यातपुत्री सुकन्या का पुत्र राजकुमार दधीच था | च्यवनाश्रम शोण नदी के पश्चिमी तट पर दो कोश दूर था । दोनों के निरंतर मिलन स्वरूप प्रेमाग्नि इतनी प्रवल हुई कि दोनों ने गांध विवाह कर लिया और पति - पत्नी रूप जीवन यापन करने लगे | - - जब घनिष्ठता और बढ़ी तो सरस्वती ने अपना परिचय दिया | सरस्वती एक वर्ष से ज्यादा दिन तक साथ रही । फलतः उसने एक पुत्र रत्न जना पुत्रमुखदर्शनोपरांत सरस्वती अपने पुत्र को सर्वगुणसंपन्नता का वरदान देकर स्वर्ग वापस लौट गयी | पत्नी वियोगाग्नि - दग्ध राजकुमार दधीचि ने वैराग्य धारण कर लिया | अपने पुत्र को स्वभ्राता - पत्नि अक्षमाला को पालन पोषण के लिए सौंप कर युवावस्था में ही तपश्चर्या के लिए च्यवन कानन में प्रवेश कर गए | अक्षमाला भी गर्भवती थी । उसे भी एक पुत्र हुआ | सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा " वत्स ” | अक्षमाला ने अपना दूध पिलाकर दोनों बालकों का पुत्रवत पालन पोषण किया । एक ही माता के दुग्धपान से दोनों में सहोदर भ्रातृवत सम्बन्ध हो गया | अपनी माता सरस्वती देवी के वरदान से सारस्वत सभी विद्याओं में निष्णात हो गए और इतनी क्षमता प्राप्त कर ली कि अपना पूरा ज्ञान , कौशल और सारी विद्याएँ अपने भाई वत्स के अंदर अंतर्निहित कर दी | परिणामस्वरूप वत्स भी सरस्वती देवी प्रदत्त सारी विद्याओं में निष्णात हो गए । वत्स में सर्व विद्या अर्पण कर च्यावानाश्रम के पास ' प्रीतिकूट ' नामक ग्राम में उन्हें बसाकर सारस्वत भी अपने पिता का अनुशरण कर च्यवन कानन में तपस्या करने चले गए ।
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