Tripura Sundri । त्रिपुरा सुंदरी । Banswara Tripurasundri

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Tripura Sundri । त्रिपुरा सुंदरी । बांसवाड़ा


नवरात्र विशेष : दिन में तीन बार बदलता है मां का स्वरूप, इसलिए जाना जाता है त्रिपुरा सुंदरी के नाम से

तलवाड़ा (बांसवाड़ा). राजस्थान के दक्षिणांचल में अरावली की पर्वतमालाओं से घिरा हुआ क्षेत्र जो नदियों, जलाशयों एवं प्रकृति की सुरम्य वादियों से आच्छादित हैं। जिसे बांसवाड़ा कहा जाता है। वागड़ प्रदेश का यह क्षेत्र अति प्राचीनकाल से धर्म क्षेत्र के महत्व का रहा हैं। बांसवाड़ा को छोटी काशी की संज्ञा भी दी गई हैं। यहां विविध देवी-देवताओं के प्रसिद्ध पुरातन असंख्य मंदिर है। जो निर्माण कला, शिल्प और अपनी भव्यता के लिए सम्पूर्ण प्रदेश ही नहीें अपितु भारतवर्ष में प्रसिद्धि प्राप्त हैं। आध्यात्म और पवित्र धारा वाली निर्मल, सलिला माही नदी यहां गंगा मानी जाती हैं। ऐसी पावन माही नदी के क्षेत्र में पुरामहत्व के कई मंदिरों में बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से 20 किमी दूर तलवाड़ा कस्बे के पास मां त्रिपुरा सुंदरी माता का भव्य मंदिर हैं।

प्रमुख शक्ति पीठों से हैं एक
मां त्रिपुरा सुंदरी का मंदिर प्रमुख 52 शक्ति पीठों में से एक है। सिंंहवाहिनी मां भगवती त्रिपुरासुंंदरी की मूर्ति अष्टदश (अ_ारह) भुुजाओं वाली है। पांच फीट ऊंं ची मूर्ति मेेंं मां दुर्गा के नौ रूपों की प्रतिकृृतियां अंकित है। मां के चरणकमलों मेें सर्वसिद्धि प्र्रदान करने वाला भव्य अद्भुत श्रीयंत्र निर्मित है। मां के सिंंह, मयूूर व कमलासीनी होने के कारण दिन में तीन रूपों को धारण करती प्रतीत होती है। जिसमेेंं सुबह की बेला में कुमारिका, मध्याह्न में योवना सुंदरी व संध्या के समय प्रौढ़ स्वरूप में मां के दर्शन देने से इसे त्रिपुरा सुंदरी के नाम से जानते है।

पहले कहते थे तरताई माता
आरंभ में इसे तरताई माता के नाम से जाना जाता था। मंदिर क्षेत्र अतिरमणीय, शांत तथा दर्शनीय स्थल हैं। यहां राजस्थान एवं पड़ोसी गुजरात व मध्यप्रदेश से श्रद्धालु प्रतिवर्ष मांं के दर्शनार्थ आते हैं। माता से मनोतियां मांगते हैं और मांगी गई मुराद पूरी होने पर कई प्रकार के धार्मिक आयोजनों की धूम रहती है।

निहारते हैं घंटों तक, नहीं भरता मन
मां की मूर्ति का सौन्दर्य, शृंगार और आभा का ऐसा आकर्षण है कि दर्शनार्थी मंत्रमुग्ध होकर घंटों तक इसे निहारते रहते हैं। इसी के समक्ष बैठकर पूजा में लीन हो जाते हैं, लेकिन मन भरता ही नहीं है। इसे आरंभ में तरताई माता के नाम से जाना जाता था। मंदिर क्षेत्र अतिरमणीय, शंात व सौन्दर्यता से परिपूर्ण फैला हुआ है। यह मंदिर श्रद्धालुओं के लिए जन आस्था का सेतु बना हुआ है।

सम्राट कनिष्क के काल से पूर्व है मंदिर
मंदिर निर्माण काल का ऐतिहासिक प्र्रमाण तो उपलब्ध नहीं है, पर विक्रम संवत 1540 का एक शिलालेख इस क्षेत्र मेंं मिला है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि यह मंदिर सम्राट कनिष्क के काल से पूर्व का है। यहां आसपास गढ़पोली नामक महानगर था। इस क्षेेत्र मेेंं सीतापुरी, शिवपुरी और विष्णुपुरी के नाम के तीन दुर्ग थे। शिलालेख में त्रिऊरारी, शब्द का उल्लेख है। इसके आधार पर ही तीन दुर्गों केे बीच देवी मांं का मंंदिर स्थित होने से इसे त्रिपुरा कहा जाने लगा।

राक्षसों का किया संहार
एश्वर्य व धन्य-धान्य से परिपूर्ण इस देवी ने राक्षसों से युद्ध करते समय शुंभ व निशुंभ जैसे राक्षसों का वध किया। त्रिपुुरारी राक्षस से मां त्रिपुुरा ने युद्ध किया। तब मां त्रिपुरा ने अपने चक्र से त्रिपुरारी राक्षस का सिर धड़ से अलग कर वध किया तथा अपनी दिव्य आभायुक्त लक्ष्मीस्वरूपा सौन्दर्य का दर्शन कराया। इसका एक स्वरूप वक्रान्ति स्वरूपा भी बताया गया है। ‘या देवी सर्वभूतेेषु कांंति रूपेशा संंस्थिता। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:।। इसी संदर्भ मेेंं दिव्य आभा युुक्त तेज देेने वाली, ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाली व भक्तोंं की पीड़़ाओंं को दूर करने वाली मां त्रिपुुरा सुंदरी की दिव्य ज्योति वागड़ क्षेत्र केे अलावा विश्व स्तर तक फैली हुई है। जहां इसकी आस्था के गुणगान होते हैं।

शक्ति उपासना के लिए नवरात्र श्रेष्ठ
भारतीय संस्कृति मेंं शक्ति उपासना के लिए नवरात्र को श्रेष्ठ माना गया है। वैसे तो वर्षभर में चार नवरात्र मनाने का विधान है। जिनमेेंं शारदीय व बासंंती नवरात्र का विशेेषरूप सेे महत्च है। शेष दो नवरात्र गुुुप्त माने जाते हैं। शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से मनाए जाते हैं। इस दौरान भी मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा की जाती है। इस दौरान कन्याओं आदि को भोज कराया जाता है तथा दशवें दिन विजयदशमी के रूप में दशहर मनाया जाता है।

चैत्र नवरात्र से हिन्दी नव संवत्सर
चैत्र शुुक्ल प्र्रतिपदा से रामनवमी तक बासंती नवरात्र मनाए जाते हैं। इस दौरान भी दुर्गा के नौ रूपों की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। इन नवरात्र के प्रारंभ से हिन्दी नवसंवत्सर की गणना की जाती है। दोनों ही नवरात्र के दिन धार्मिक आयोजनों से भरपूर रहते है। गरबा, डांडिया समेत कई प्रकार के नृत्य व दुर्गा पाठ आदि के आयोजन होते हैं। माता के उपासक राजा महाराजा भी रहे हैं। इस रियासत काल में बांसवाड़ा, डूंगरपुर, गुुजरात, मालवा प्रदेश और मारवाड़ा क्षेत्र आता है। यहां के राजा-महाराजा भी मांं त्रिपुरा सुुंदरी के उपासक रहेे हैं। वागड़ की धरोहर व भारत के 52 शक्ति पीठों में से एक इसे भी माना गया है।

प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण
वागड क्षेेेत्र धन्य-धान, प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण होने के साथ यहां शिल्पकार, पंडित, साहित्यि राजनीतिज्ञों की कमी नहीं रही है। पूर्व मुख्य मंत्री हरिदेश जोशी भी यही के थे।

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