राम-सीता विवाह प्रसङ्ग-भाग:२

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नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥1॥
भावार्थ:-मंगल अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भलीभाँति किए॥1॥
पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥2॥
भावार्थ:-पंचशब्द (तंत्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही- इन पाँच प्रकार के बाजों के शब्द), पंचध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि और हुलूध्वनि) और मंगलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। उन्होंने (रानी ने) आरती करके अर्घ्य दिया, तब श्री रामजी ने मंडप में गमन किया॥2॥
दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥3॥
भावार्थ:-दशरथजी अपनी मंडली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गए। समय-समय पर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शांति पाठ करते हैं॥3॥
नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई॥
एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥4॥
भावार्थ:-आकाश और नगर में शोर मच रहा है। अपनी-पराई कोई कुछ भी नहीं सुनता। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी मंडप में आए और अर्घ्य देकर आसन पर बैठाए गए॥4॥
छन्द :
बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥
भावार्थ:-आसन पर बैठाकर, आरती करके दूलह को देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढेर के ढेर मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मंगल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेश बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल जान रहे हैं।
दोहा :
*नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥319॥
भावार्थ:-नाई, बारी, भाट और नट श्री रामचन्द्रजी की निछावर पाकर आनंदित हो सिर नवाकर आशीष देते हैं, उनके हृदय में हर्ष समाता नहीं है॥319॥
चौपाई :
मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥1॥
भावार्थ:-वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए, कवि उनके लिए उपमा खोज-खोजकर लजा गए॥1॥
लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥
सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥2॥
भावार्थ:-जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर संबंध देखकर देवता अनुरक्त हो गए और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे॥2॥
जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥
सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥3॥
भावार्थ:-(वे कहने लगे-) जबसे ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने बहुत विवाह देखे- सुने, परन्तु सब प्रकार से समान साज-समाज और बराबरी के (पूर्ण समतायुक्त) समधी तो आज ही देखे॥3॥
देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥
देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥4॥
भावार्थ:-देवताओं की सुंदर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गई। सुंदर पाँवड़े और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मंडप में ले आए॥4॥
छन्द :
मंडपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजन परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥
भावार्थ:-मंडप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुंदरता से मुनियों के मन भी हरे गए (मोहित हो गए)। सुजान जनकजी ने अपने हाथों से ला-लाकर सबके लिए सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती॥
दोहा :
बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस॥
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥320॥
भावार्थ:-राजा ने वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिए और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया॥320॥
चौपाई :
बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा॥
कीन्हि जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥1॥
भावार्थ:-फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश (महादेवजी) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदन्तर (उनके संबंध से) अपने भाग्य और वैभव के विस्तार की सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई की॥1॥
पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती॥
आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू॥2॥
भावार्थ:-राजा जनकजी ने सब बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिए। मैं एक मुख से उस उत्साह का क्या वर्णन करूँ॥2॥
सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥3॥
भावार्थ:-राजा जनक ने दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्री रघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,॥3॥

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