राम-सीता विवाह प्रसङ्ग-भाग:१

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गए बीति कछु दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥2॥
भावार्थ:- इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। जनकपुर निवासी और बाराती सभी बड़े आनंदित हैं॥2॥
मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥3॥
भावार्थ:-मंगलों का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमंत ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार किया,॥3॥
पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥4॥
भावार्थ:-और उस (लग्न पत्रिका) को नारदजी के हाथ (जनकजी के यहाँ) भेज दिया। जनकजी के ज्योतिषियों ने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे- यहाँ के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं॥4॥
दोहा :
धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥
भावार्थ:-निर्मल और सभी सुंदर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र बेला आ गई और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा॥312॥
चौपाई :
उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा॥
सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥1॥
भावार्थ:-तब राजा जनक ने पुरोहित शतानंदजी से कहा कि अब देरी का क्या कारण है। तब शतानंदजी ने मंत्रियों को बुलाया। वे सब मंगल का सामान सजाकर ले आए॥1॥
संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥
भावार्थ:-शंख, नगाड़े, ढोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा मंगल कलश और शुभ शकुन की वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजाई गईं। सुंदर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं॥2॥
लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥
भावार्थ:-सब लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारात को लेने चले और जहाँ बारातियों का जनवासा था, वहाँ गए। अवधपति दशरथजी का समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे॥3॥
भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा॥4॥
भावार्थ:-(उन्होंने जाकर विनती की-) समय हो गया, अब पधारिए। यह सुनते ही नगाड़ों पर चोट पड़ी। गुरु वशिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओं के समाज को साथ लेकर चले॥4॥
दोहा :
भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥313॥
भावार्थ:-अवध नरेश दशरथजी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखों से उसकी सराहना करने लगे॥313॥
चौपाई :
सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥1॥
भावार्थ:-देवगण सुंदर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द यूथ (टोलियाँ) बना-बनाकर विमानों पर जा चढ़े॥1॥
प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥2॥
भावार्थ:-और प्रेम से पुलकित शरीर हो तथा हृदय में उत्साह भरकर श्री रामचन्द्रजी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने-अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे॥2॥
चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।
नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥3॥
भावार्थ:-विचित्र मंडप को तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे चकित होकर देख रहे हैं। नगर के स्त्री-पुरुष रूप के भंडार, सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं॥3॥
तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥
बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥4॥
भावार्थ:-उन्हें देखकर सब देवता और देवांगनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गए जैसे चन्द्रमा के उजियाले में तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजी को विशेष आश्चर्य हुआ, क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई करनी (रचना) तो कहीं देखी ही नहीं॥4॥
दोहा :
सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥
भावार्थ:-तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में मत भूलो। हृदय में धीरज धरकर विचार तो करो कि यह (भगवान की महामहिमामयी निजशक्ति) श्री सीताजी का और (अखिल ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात्‌ भगवान) श्री रामचन्द्रजी का विवाह है॥314॥
चौपाई :
जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥
करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥1॥
भावार्थ:-जिनका नाम लेते ही जगत में सारे अमंगलों की जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठी में आ जाते हैं, ये वही (जगत के माता-पिता) श्री सीतारामजी हैं, काम के शत्रु शिवजी ने ऐसा कहा॥1॥
एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥2॥
भावार्थ:-इस प्रकार शिवजी ने देवताओं को समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नंदीश्वर को आगे बढ़ाया। देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में बड़े ही प्रसन्न और शरीर से पुलकित हुए चले जा रहे हैं॥2॥

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