विरासत EPS03 | Veer Chandra Singh Garhwali | वीर चंद्र सिंह गढ़वाली

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23 अप्रैल 1930. पेशावर के सदर बाजार के काबुली गेट पर पठानों की भीड़ लगी हुई थी. सबके चेहरों पर एक शिकन तो थी, लेकिन कोई खास ख़ौफ़ नहीं दिखता था. पेशावर के आसमान में सूरज अभी चढ़ ही रहा था, लेकिन माहौल में तनाव और कुछ अनिष्ट हो जाने का डर पसरा हुआ था. चौराहे के दूसरी ओर अभी-अभी एक गोरे सार्जेंट पर किसी ने पेट्रोल की बोतल दे मारी थी. वो सार्जेंट जब जलने लगा तो वहां तैनात अंग्रेज़ अधिकारी कैप्टन रिकेट ने सिपाहियों को उसे बचाने का आदेश दिया. लेकिन कोई भी भारतीय सिपाही आगे नहीं बढ़ा. उल्टा सभी सिपाहियों ने मुँह फेर लिया. सार्जेंट जब जल कर मर गया, तो ग़ुस्से से तमतमाए कैप्टन रिकेट ने चार जवानों को धक्का मारते हुए आदेश दिया, ‘जाओ उसे ले आओ.’ सिपाही मौके पर पहुंचे और गोरे सार्जेंट को खींच लाए.

इस घटना के बाद पेशावर के पठान ये भांप चुके थे कि अंग्रेजी हुकूमत इस हत्या का बदला ज़रूर लेगी. पठानों की ये आशंका अगले कुछ घंटों में ही सही भी साबित होने वाली थी. अंग्रेजों ने रॉयल गढ़वाल राइफ़ल्ज़ की पूरी ब्रिगेड को पेशावर के चप्पे-चप्पे में तैनात कर दिया. मंसूबे ये थे कि जब गढ़वाली सिपाही निहत्थे पठानों पर गोली चलाएंगे तो इससे हुकूमत को दो फायदे होंगे. पहला ये कि पठानों का जनसंहार हुकूमत के ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को ख़ौफ़ज़दा कर देगा और दूसरा ये कि हिंदू सिपाहियों द्वारा पठानों पर चली गोलियां दो धर्मों के बीच बन रही नफरत की खाई को और भी चौड़ा कर देगी.

अंग्रेज अधिकारियों ने गढ़वाल रेजिमेंट की प्लाटून चार को पठानों के नरसंहार के लिये चुना. इस प्लाटून की कमान एक ऐसे गढ़वाली सूबेदार के हाथ में थी, जो कुछ मिनट बाद ही पूरी ब्रितानिया सल्तनत की जमीन हिलाने वाला था, जो पूरी दुनिया के क्रांतिकारियों के लिए एक आदर्श बनने वाला था, जिसका नाम स्वतंत्रता आंदोलन में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज होने वाला था और जो कुछ साल बाद आज़ाद भारत की एक गुलाम रियासत में पहली सशस्त्र क्रांति का नेतृत्व करने वाला था. ये नाम था, चंद्र सिंह भंडारी, जिसे इतिहास ने चंद्र सिंह गढ़वाली के रूप में याद रखा.

'विरासत' के इस एपिसोड में देखिए कहानी 'वीर चंद्र सिंह गढ़वाली' की जिसे अंग्रेज़ों ने ही नहीं, आज़ाद भारत ने भी राजद्रोही कहा.


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