श्रीमद्भगवद्गीता || अध्याय4 श्लोक2 || परम और परम्परा एक साथ नहीं चल सकते || आचर्य प्रशांत ||

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एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥

इस प्रकार परम्परा से प्राप्त यह योग राजा और ऋषि जानते थे हे अर्जुन इस लोक में वह योग दीर्घ काल से नष्ट हो गया है|

काव्यात्मक अर्थ:-
परम से ना विलग हों
परंपरा बस यही है
शेष विषय अतीत के
नहीं ज़रूरी नहीं हैं|


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जिस कर्मकांड और धारणों को सनातन धर्म मान बैठे हैं वो है ही नही, वास्तविक सनातन धर्म तो गीता उपनिषद..है

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